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________________ आचार्य हरिभद्र के दार्शनिक चिन्तन का वैशिष्ट्य | वैशिष्ट्य को विलक्षित करने का विशेषाधिकार हरिभद्र के वाङ्य में विविध विषयों से व्यवस्थित रहा हुआ है। हरिभद्र सूरि का व्यक्तित्व एक विद्वद् परम्परा में विशिष्टता से सम्मानित है। उनकी मान्यताएँ मनीषा जन्य मस्तिष्क की स्फुरणाओं से शोभनीय और हृदयग्राही है, तत्त्वों के विवेचन के लिए पर्याप्त है। उनकी दार्शनिक विशेषताएँ सैद्धान्तिक संज्ञाएँ और पारम्परिक परिभाषाएँ हरिभद्र को उच्चतम श्रेणी में स्थिर करने की है। ऐसी उत्तमता आदर्श रूप में वाङ्मयी धारा से निराबाध निष्कलंक नित्य प्रवाहित करनेवाले प्रज्ञा पुरुष हरिभद्र सर्वजन हितकारी, उपकारी, उपदेशक और आध्यात्मिक योगी परिलक्षित हुए है। विद्वत्ता स्वयं इनकी अनुरागिणी बनकर जीवन-जीवित रखने की शुभाशंसा चाहती रही है। जिन्होंने प्राकृत को परमोच्च भाव से शिरोधार्य कर गद्यबद्ध रूप से अनेक ग्रन्थों में प्राथमिकता दी। संस्कृत और संस्कृति की धारा में एकदम धवलपन धुले हुए धुरन्धर दार्शनिक रूप में दिव्य दर्शन की पहेलियाँ प्रस्तुत करने में अपनी आत्म प्रतिभा को पुरस्कृत रखा है। __ सिद्धान्त वादिता को साहचर्य भाव से सहयोगी सखारूप से स्वीकृत करते हुए अप्रतिम सिद्धान्तवादी रूप में स्पष्ट हुए है। दार्शनिकता को दाक्षिण्यता से दायित्वपूर्ण दर्शित करते अपनी सुदूर दर्शिता का परिचय दिया है। शताब्दियों तक शोध के बोध के सुपात्रों को मार्गदर्शन देने में सिद्धहस्त सक्षम साहित्यकार रूप में उपस्थित हुए है। अपनी उपस्थिति को वाङ्मयी वसुमति पर विशेषता से व्यक्त करने का कौशल उनके दर्शन ग्रन्थों में दिव्य चमत्कार प्रगटित कर रहा है। ऐसी अलौकिक क्षमता के धनी और समता के शिरोमणी रत्न और प्रशमता के प्राज्ञ पुरुष रूप में अपना आत्म परिचय विस्तृत करने में एक विशेष विद्वान् महाश्रमण हुए है। उन्होंने श्रामण्य भाव को साहित्य के धरातल पर शोभनीय बनाने का जो श्रेयस्कर सुपथ चुना है, यह चयन प्रक्रिया शताब्दियों तक इनके सुयश की गाथाएँ गाती रहेगी। विद्या गौरव के गीत जन-जन को सुनाती रहेगी। इस विद्या प्रिय पुरुष ने श्रमण संस्कृति की सेवा में जीवन को समर्पित कर अपनी धन्यता-मान्यता जो मनोरम बनाई है वह मनीषियों के मन को प्रभावित करती रहेगी। समय स्वयं इनकी सराहना करता समाज को हारिभद्रीय दर्शन पथ का दिग्दर्शन देता रहेगा। ऐसे हरिभद्र को मेरा शत-शत नमन सदा होता रहे और मैं हारिभद्रीय के प्रज्ञान प्रमोद में प्रमेय के पुष्पों का चयन करती उनको वरमाला पहनाती रहूँ। यह ही मेरा हरिभद्र के प्रति हृदयोल्लास है। जो भ्रान्तों के भ्रमितों को भूले हुए को भवविरह पथ का दर्शन देते रहे है। ___ उस हरिभद्र की वैशिष्ट्य कला का मैं क्या वर्णन कर सकती हूँ। वे स्वयं अपनी वर्णता से वरेण्य है, विशिष्ट हैं, व्याख्यायित हैं और वाचित है। अतः मेरी वाच्य कला और लेखन कला उनके चरणों में समर्पित है। COO | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIII सप्तम् अध्याय 469
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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