________________ नियतिवादी उद्यम और पुरुषार्थ को जीवन में महत्त्व नहीं देते है। वे नियतिवाद का सहारा लेकर जीवन में उपलब्धियों को नियतिवाद का उपहार मानते है। प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति नृणांशुभोऽशुभो वा। भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाऽभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः॥५० नियतिवादी कहते है कि जो प्राप्त करने योग्य अर्थ है वह नियतिबल से मनुष्य को शुभ अथवा अशुभ अवश्य प्राप्त होता है। जीव बहुत प्रयत्न करने पर भी न होनेवाला कभी प्राप्त नहीं होता है। नियति बल को निश्चित मानकर, कर्म हेतु को नगण्य समझकर नियतिवाद का निर्णय नितान्त निराधार बनता है। फिर भी भाग्यवाद के भरोसे जीवन जीनेवाले संसार में है। परिणामवाद से जीवन के प्रति न्याय करनेवाले और पदार्थों, परिणामों को न्यायसंगत कहनेवाले परिणामवादी कभी पश्चात्ताप नहीं करते। उनका तो चिन्तन बड़ा ही सूझभरा समयोचित बतलाते है। प्रतिसमयं परिणामः. प्रत्यात्मगतश्च सर्वभावानम। संभवति नेच्छ्यापि, स्वेच्छा क्रमवर्तिनी यस्मात् // 51 जीवन में इच्छाओं का महत्त्व है। परंतु परिणाम इच्छा के अनुरूप नहीं होते। अतः प्रस्तुत को, परिणाम को इच्छानुसार घटाना यह संभवित नहीं है। और कर्म से उन्हें अनुरूप बनाना दुःशक्य है। अतः परिणामवाद भारतीय दर्शन में अपना स्थान रखता है। निष्कर्ष अस्तु आचार्य हरिभद्र ने अनेक सिद्धान्तों तथा अन्य दर्शनों का अवगाहन आलोड़न करके एक-एक विषय को अनुभूति की वेदिका पर आरूढ़ करके साहित्य जगत को भेंट दी है। आचार्य हरिभद्र ने षड्दर्शन-समुच्चय की रचना कर अन्य दर्शनों की अवधारणाएँ समन्वयवादी के पुरोधा बनकर प्रस्तुत की जो अपने आप में एक अद्वितीय है। दूसरी तरफ शास्त्रवार्ता जैसे महान् ग्रन्थ की रचना उनकी यश की विजय-पताका लहराने वाली बनी, क्योंकि इसमें उन्होंने प्रत्येक पदार्थ को अनेकान्त की कसोटी पर तरासकर प्रत्येक दर्शन की समस्या का समाधान दिया है, जो दर्शनशास्त्रों के जिज्ञासुओं के लिए पठनीय, मननीय है। आचार्य हरिभद्र ने जैन दर्शन एवं अन्यदर्शनों की युक्तियों का मंडण एवं खण्डन जिस शैली एवं उदारता से किया है वैसा शायद ही अन्य विद्वान् ने किया होगा। आज साहित्य जगत में जो देन आचार्य हरिभद्र की है वह वास्तव में अविस्मरणीय रही है और रहेगी। उनकी असाधारण लेखनी आज उन्हें गौरवान्वित बनाये है। वर्तमान युग में उनका साहित्य दार्शनिकता के साथ मनोवैज्ञानिकता को भी सिद्ध करता हुआ प्रसिद्ध हुआ। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII सप्तम् अध्याय 468