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________________ प्रत्यक्ष निर्विकल्पक होता है। क्योंकि समाधि की एकाग्रता में विकल्पक की सम्भावना नहीं है। विकल्पक होते ही . समाधि की एकाग्रता टूट जाती है। यह प्रत्यक्ष उत्कृष्ट योगियों को होता है सभी योगियों को होने का नियम नहीं है। (2) वियुक्त योगि प्रत्यक्ष - समाधि रहित अवस्था में वियुक्त समाधि शून्य योगियों को आत्मा, मन बाह्य-इन्द्रियों तथा रूपादि पदार्थ इन चार के सन्निकर्ष से रूपादि का आत्मा, मन और श्रोत्र इन तीन के सन्निकर्ष से शब्द का तथा आत्मा और मन इन दो के सन्निकर्ष से सुखादि का ज्ञान होता है, वह वियुक्त योगि प्रत्यक्ष कहलाता है। यह निर्विकल्पक तथा सविकल्पक दोनों प्रकार का होता है। अनुमान नैयायिक मत में तीन प्रकार का बताया गया है। अनुमानं तु तत्पूर्वं त्रिविधं भवेत् पूर्ववच्छेषवच्चैव' / इत्यादि श्लोकांश में अनुमान का स्वरूप कहा गया है। श्लोक में आये हुए च और एव शब्द पूर्ववत् आदि पदों की अनेक व्याख्याओं को सूचना देते है। जैसे कि - कोई इस प्रकार व्याख्यान करते है - कि प्रत्यक्ष पूर्वक तीन प्रकार का अनुमान होता है - वे भेद इस प्रकार है - (1) पूर्ववत् - पूर्व अन्वय - व्यतिरेक के पहले अन्वय का ही ज्ञान होता है। अतः पूर्व शब्द से अन्वय का ग्रहण होता है। जिस अनुमान में केवल अन्वय व्याप्ति मिलती है उसे पूर्ववत् अर्थात् केवलान्वयि अनुमान कहते है। (2) शेषव्यतिरेक - जिस अनुमान की केवल व्यतिरेक व्याप्ति मिलती है वह शेषवत् अर्थात् केवल व्यतिरेक अनुमान है। (3) अन्वयव्यतिरेक - सामान्य रूप से अन्वय और व्यतिरेक दोनों ही व्याप्तियाँ जिसमें मिलती हो वह सामान्यतोदृष्ट अर्थात् अन्वय व्यतिरेकी अनुमान है। अथवा त्रिविध-त्रिरूप-हेतु के तीन रूप होते है। पूर्ववत् - सर्वप्रथम पक्ष का प्रयोग किया जाता है। अतः पक्ष को पूर्व शब्द से कहते है। पक्ष में रहनेवाले हेतु को पूर्ववत् अर्थात् पक्ष धर्मवाला कहते है। शेषवत् - पक्ष से भिन्न सदृश धर्मी सपक्ष अर्थात् अन्वय दृष्टांत है जिस हेतु के शेष अन्वय दृष्टांत मिलता हो वह सदृश धर्मी सपक्ष अर्थात् सपक्ष सत्त्व वाला है। सामान्यतोदृष्ट - यहाँ अकार का प्रश्लेष करके सामान्योदृष्ट हो जाता है। जो हेतु किसी भी विपक्ष में, किसी भी तरह नहीं रहता वह सामान्यतोऽदृष्ट विपक्षासत्त्व रूपवाला है। इस तरह अनुमान सूत्र के भेद तथा स्वरूप की दृष्टि से व्याख्या की है। अब विषय दृष्टि से उसके तीन विषयों का निर्देश करने के लिए तीसरी व्याख्या इस प्रकार करते है। तत्त्वपूर्वक अनुमान तीन प्रकार का है। (1) पूर्ववत् - जिस अनुमान में पूर्वकारण विद्यमान हो वह पूर्ववत् है। अर्थात् कारण से कार्य का अनुमान किया जाता है वह पूर्ववत् अनुमान है। जैसे विशिष्ट काले और घने मेघों का उदय हो अर्थात् विशिष्ट | आचार्य हरिभद्रसी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / सप्तम् अध्याय 1458
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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