________________ आदि विशिष्ट आहार की प्राप्ति होती है। योग का सामर्थ्य बल ही ऐसा है कि मुनियों को योग के सामर्थ्य बलसे रत्नादि विशिष्ट लब्धियाँ भी प्राप्त होती है। ऐसा योग सम्बन्धी जैन-जैनेतर शास्त्रों में उसका स्पष्ट वर्णन मिलता है। किन्तु लब्धियों की प्राप्ति होने के पश्चात् भी लब्धियों के द्वारा योगी महात्मा अभिमान स्वार्थ-वैर को पुष्ट नहीं करते है, परन्तु सभी छोड़कर मात्र परोपकार ही करते है। मनुष्य धन के अभाव में अनेक कल्पनाओं में खो जाता है। यदि धन प्राप्ति हो जाए तो देश-विदेश में भ्रमण करुं, गाड़ी-वाड़ी में बैठकर आनंद का उपभोग करुं और विशिष्ट धन की प्राप्ति हो जाए तो प्लेन द्वारा देश-विदेश में घूम आऊँ, उसी प्रकार इस जीव की जब तक इच्छाएँ पूर्ण नहीं होती है, तब तक अभिलिप्साएँ बढ़ती जाती है। यदि मुझे वैक्रिय शरीर मिले तो सभी जगह घूम आऊँ, आहारक शरीर मिले तो सीमंधर स्वामी के पास पहुंच जाउँ, आकाशगामिनी लब्धि मिले तो नंदीश्वर द्वीप पहुँच जाउँ, परंतु योगदशा के बिना प्रायः ऐसी लब्धियाँ अलभ्य है। योग का सामर्थ्य जब प्रगट होता है तब योग के बल से ये लब्धियाँ उत्पन्न होती हैं। परन्तु उस समय भोगी के समान लिप्सा ही समाप्त हो जाती है। इसीलिए महात्मा पुरुष लब्धियों का उपयोग नहीं करते हैं / प्रसंग आता है तभी करते हैं। विष्णुकुमार के पास वैक्रियलब्धि थी। परन्तु नमुचि का प्रसंग आया तब ही उपयोग किया। वज्रस्वामी के पास आकाशगामिनी विद्या थी। परन्तु पालिताणा में पुष्पपूजा का प्रसंग आया तो ही उपयोग किया। पूर्वो के पास आहारकलब्धि होती है। परन्तु प्रश्नोत्तरादि का प्रसंग होता है तब ही उपयोग करते थे। अर्थात् लब्धि की प्राप्ति होना पुण्योदय है। परन्तु बिना कारण उसका उपयोग करना प्रमाद है। अतः आहारक लब्धि की प्राप्ति सातवें गुणस्थान में होती है। परन्तु जब उपयोग करता है तब प्रमत्त (6) गुणस्थान में आता है।५१ जैसे-जैसे और विशिष्ट योग का सामर्थ्य विकसित होता है वैसे-वैसे रत्नादि लब्धियाँ, चित्र-विचित्र ऐसी अणिमादि लब्धियाँ तथा आम!षधि आदि लब्धियाँ उत्पन्न होती है।१५२ - रत्नादि लब्धियों का वर्णन महर्षि पतञ्जलि प्रणीत योगदर्शन में मिलता है / 'स्थान्युपनिमन्त्रणो संगस्मयाकरणं पुनरनिष्टप्रसङ्गात्। 153 योगी महात्मा जब योग अवस्था में आरूढ़ होते है तब उस स्थानगत देव योगी को योगमार्ग से विचलित करने अप्सरादि का वर्णन पूर्वक दैविक भोगों को उपनिमंत्रण करते है तब दैविक भोगों के संग का अकरण तथा मेरे योग का कैसा प्रभाव है कि देवता भी मुझे निमंत्रण देते है। इत्यादि अभिमान नहीं होना चाहिए। कारण कि दैविक संग और योग की दशा का अभिमान पुनः अनिष्ट का ही कारण बनता है। अतः इन से विरक्त आत्मा को ही योगदृढता से लब्धियाँ प्राप्त होती है। योगदर्शन के प्रभाव से अणिमादि लब्धियों का प्रादुर्भाव होता है तथा प्रकाम्य आदि सिद्धियाँ प्राप्त होती है। (1) अणिमा - स्थूल शरीर को छोटा बना सकते है। (2) लघिमा - गुरु शरीर को हल्का बनाना। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIOIN DIA षष्ठम् अध्याय | 431 )