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________________ बौद्धदर्शन विसभागपरिक्षय कहता है। शैवदर्शन शिववर्त्म कहता है। महाव्रति को ध्रुवाध्वा कहते है। इस प्रकार इस दृष्टि में महात्माएँ शीघ्रातिशीघ्र सत्प्रवृत्तिपद को प्राप्त करते हैं। 45 (8) परादृष्टि - आध्यात्मिक उत्क्रान्ति की यह सर्वोच्च अवस्था है। इस दृष्टि के ज्ञानबोध की समानता चंद्र द्वारा प्राप्त प्रकाश से की है।१४६ इस दृष्टि में योगी को योग का आठवाँ अंग समाधि प्राप्त होता है। आसंग दोष दूर हो जाता है और सर्व प्रवृत्तियाँ आत्म-सात् हो जाती है। इस दृष्टि में योगी निराचार बनता है। राग-द्वेष से पूर्णतः मुक्त रहता है। प्रतिक्रमण आदि आचार नहीं होते है। कारण कि इस दृष्टि में उसे किसी प्रकार के अतिचार नहीं लगते है।१४७ इस दृष्टि में योगी क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होता है। क्षपकश्रेणी में जब द्वितीय अपूर्वकरण करता है तब तात्त्विक रूप से 'धर्मसंन्यास' नाम का सामर्थ्य योग होता है। यहाँ योगी क्षमादि क्षायोपशमिक धर्मों से निवृत्त होता है। और क्षायिक गुणों की प्राप्ति होती है। यहाँ योगी केवलज्ञानी बनता है। चार घाती कर्म है, ये कर्मरूपी बादल से आत्मा आच्छादित होता है। वे योगरूपी प्रचंड वायु के प्रहार से छिन्न-भिन्न हो जाते है। और श्रेणी पूर्ण होने से आत्मा सर्वज्ञ बनता है। रागादि सभी दोषों का नाश होता है। आत्मा सर्वज्ञ बनता है और सम्पूर्ण लब्धियों के फलस्वरूप परम पदार्थ को प्राप्त करता है और अंत में योगान्त को प्राप्त करता है। योगान्त अर्थात् शैलेषी अवस्था है। शैलेशी करण जो कि श्रेष्ठ शैलेशी योग है। उससे भव-व्याधि का क्षय करके भावनिर्वाण को प्राप्त करता है।१४८ हरिभद्रसूरि के परा दृष्टि की तुलना पातञ्जल योग समाधि से की जा सकती है। जैसे वस्तु पूर्णतः स्वयं प्रकाशित होती है / उस तरह समाधि होती है।४९ पूर्ण अंतस्तल तक की समाधि में मन भी ध्यान समाधि के आकार में लीन हो जाता है।१५० / / __इस प्रकार हरिभद्रसूरि की योगदृष्टियों को दो विभाग में विभाजित किया जा सकता है। प्राथमिक योग में प्रथम की चार दृष्टियाँ समाविष्ट होती हैं। इन्हें ओघदृष्टियाँ या मिथ्यादृष्टियाँ भी कहते हैं। यहाँ साधक मिथ्यात्व लिये रहता है और सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए बहुत प्रयत्नशील रहता है। ये चार दृष्टियाँ गुणहीन होती है तथा अंतिम की चार दृष्टियों में योगी मोक्ष का सच्चा स्वरूप समझ जाता है। मोक्ष प्राप्ति की तीव्र अभिलाषा बनती है। यम-नियम के पालन में दृढ़ता आती है तथा उत्तरोत्तर विकास साधता है। योग की परिलब्धियाँ - योगी महात्मा क्रमशः जैसे-जैसे योग दशा में अग्रसर होते हैं और योग की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त करते है, वैसे-वैसे योग के अचिन्त्य प्रभाव से तीव्र पुण्योदय बढ़ता जाता है। और वह आहारादि में प्रतिबंध करनेवाले ऐसे पूर्वबंध कर्मों की विशिष्ट निर्जरा होने से श्रेष्ठ तथा परमान्न, हविपूर्ण घेवर | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI IA षष्ठम् अध्याय 430)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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