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________________ तीनों आत्मा को लक्ष्य स्थान पर पहुँचाने में बाधक बनते है। जब योगी इन पर विजय प्राप्त करता है तब निश्चित श्रेणी को प्राप्त करता है। इनका वर्णन 'आशय शुद्धि में योग' में पाँच आशयों में विघ्नजय नाम के आशय में विस्तार से किया जायेगा। ___ साथ में आचार्य हरिभद्रसूरि ने इन बाधक तत्त्वों के साथ राग द्वेष और मोह आत्मा के इन तीनों दोषों का भी उल्लेख किया है। मोहविघ्न जो आंतरिक विघ्न है इसके अन्तर राग-द्वेष और मोह का भी समावेश हो सकता है। जिस प्रकार मोहविघ्न आत्मा को भ्रमित बना देता है / उसी प्रकार राग-द्वेष और मोह भी आत्मा के वैभाविक परिणाम है। ये आत्मा को दूषित बनाते है / ये दोष आत्मा के ज्ञानादि गुणों को आच्छादित करते है। आत्मा को विभावदशा में ले जाते है।६२ राग यह एक प्रकार की आसक्ति है / द्वेष अप्रीति का सूचक है तथा मोह यह अज्ञानमूलक है।६२ इन तीनों के कारण आत्मा कर्मों के बंधन करती है और अनेक पीडाओं को प्राप्त करती है। ये भी आत्मा को गन्तव्य स्थान में पहूँचने में बाधक बनते है। क्योंकि रागादि से कर्म की परंपरा सतत चालू रहती है। जिससे भव-भ्रमण भी अनवरत चलते रहते है। अतः आचार्य हरिभद्रसूरिने इन बाधक तत्त्वों को दूर करने के लिए उनके प्रतिपक्षी साधक तत्त्वों की भी स्थापना की है। ___ योग के साधक तत्त्व - साधक तत्त्वों का स्पष्ट उल्लेख यद्यपि प्राप्त नहीं होता है फिर भी कंटकविघ्न आदि पर विजय प्राप्त करने के शुभ परिणाम एवं रागादि दोषों की प्रतिपक्ष भावनाओं का तत्त्व चिंतन करना साधक तत्त्वों के अन्तर्गत गिन सकते है। - प्रतिपक्ष भावना में साधक आत्मा संप्रेक्षण करता है और चिन्तन करता है / इन रागादि तीनों दोषों में से मुझे अतिशय हत-प्रहत कौन करते है ? उसकी गवेषणा करता है। __ ये तीनों आत्मा के दोष है / इनका अपनयन करने के लिए स्वरूपचिंतन, परिणामचिंतन और विपाकदोषचिंतन - इस प्रकार क्रमशः एक-एक दोषों का तीन-तीन प्रकार से तत्त्वचिंतन करना चाहिए।६४ संसार में राग के अनेक साधन है, उसमें सर्वोच्च कक्षा का राग स्त्री है। साधक स्त्री सम्बन्धी राग होने पर सम्यग्बुद्धि पूर्वक उस स्त्री के शरीर का स्वरूप चिंतन करता है कि यह शरीर कीचड-मांस-रुधिर-अस्थि तथा विष्टामय मात्र ही है। शारीरिक रोग और वृद्धत्व रोग के परिणाम है तथा नरकादि दुर्गतियों की प्राप्ति विपाक स्वरूप है। इसी प्रकार धनार्जन सैंकडों दुःखों से युक्त है। यह इसका स्वरूप है। तथा अत्यंत पुरुषार्थ से प्राप्त किया हो तो भी गमनपरिणाम वाला है तथा उसको प्राप्त करने में अर्जित पापों से कुगति के विपाक देनेवाला है। जब द्वेषभाव आता है तब जिसके ऊपर द्वेष होता है वह जीव और पुद्गल मेरे से भिन्न है तथा यह द्वेष अनवस्थित परिणतिवाला है और परलोक में आत्मा को पतन की खाई में गिरा देनेवाला है। मोह के विषय में भी सामान्य से उत्पाद-व्यय और ध्रुवतायुक्त वस्तु के स्वरूप को अनुभवपूर्वक युक्तियों के साथ सम्यग् प्रकार से विचारना।६५ [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII षष्ठम् अध्याय 1409
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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