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________________ ने इसको स्वीकार किया हो ऐसा नहीं लगता। हरिभद्र इस 'संन्यास' शब्द को अपनाते है, इतना ही नहीं, धर्मसंन्यास, योग-संन्यास और सर्व-संन्यास के रूप त्रिविध संन्यास का निरूपण करके वे ऐसा सूचित करते है कि जैन परम्परा में गुणस्थान के नाम से जिस विकास क्रम का वर्णन आता है वह इस त्रिविध संन्यास में आ जाता है। महाभारत, गीता और मनुस्मृति अनेक ग्रंथों का परिशीलन योगदृष्टि समुच्चय में दृष्टिगोचर होता है। इसमें गीता के परिशीलन की गहरी छाप हरिभद्र के मानस-पटल पर अंकित देखी जाती है। गीता में संन्यास और त्याग के प्रश्न की चर्चा विस्तार से आती है, गीताकार ने मात्र कर्म संन्यास को संन्यास न कहकर काम्यकर्म के त्याग को भी संन्यास कहा है और नियत कर्म करने पर भी उसके फल के विषय में अनासक्त रहने पर मुख्य भार देकर संन्यास का हार्द स्थापित किया है / 60 हरिभद्र जैन परम्परा के वातावरण में ही पनपे है, यह परंपरा निवृत्ति प्रधान तो है ही, परंतु सम्प्रदाय के रूप में व्यवस्थित होने से उनका बाहरी ढांचा पहले से ऐसा बनता रहता कि जिसमें प्रवृत्तिमात्र के त्याग के संस्कार का पोषण अधिक मात्रा में होता आ रहा था। हरिभद्र ने देखा कि वैयक्तिक अथवा सामाजिक जीवन को सुव्यवस्थित रखने के लिए अनेक प्रवृत्तियाँ अनिवार्य रूप से करनी पड़ती है। उनके सर्वथा त्याग पर अथवा उनकी उपेक्षा पर भार देने से सच्चा त्याग नहीं साधता बल्कि कृत्रिमता आती है। योग अथवा धार्मिक जीवन में कृत्रिमता को स्थान नहीं हो सकता, इससे उन्होंने गीता में निरूपित संन्यास के दो तत्त्वों का निर्देश योगदृष्टि समुच्चय में किया / एक तो काम्य तथा फलाभिसन्धि वाले कर्मों का ही त्याग और दूसरा है नियत एवं अनिवार्य कर्मानुष्ठान में असंगता एवं अनासक्ति। इन दो तत्त्वों को स्वीकार कर उन्होंने इतर निवृत्ति प्रधान परम्पराओं की भांति जैन परम्परा को भी प्रवृत्ति के यथार्थ स्वरूप का बोध कराया है। 5. योगशुद्धि के कारण - योग को प्राप्त करने के लिए हमारे जीवन में सर्व प्रथम उनके कारणों को अर्थात् योगशुद्धि के कारणों एवं योगशुद्धि को भी जानना आवश्यक है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगशतक के अन्दर योगशुद्धि के कारणों को प्रस्तुत किये है / वे इस प्रकार हैं निष्पाप ऐसा गमन, आसन, स्थान, शयन आदि के द्वारा काया की शुद्धि विचारना, निष्पाप ऐसे ही वचनों का उच्चारण करने के द्वारा वचन योग की शुद्धि विचारना तथा निष्पाप ऐसे शुभ चिन्तनों से मन शुद्धि विचारना अर्थात् धर्म के अविरोधि या उत्तरोत्तर धर्मसाधक ऐसा शुभ-चिन्तन यही सत्य योगशुद्धि का कारण है। तथा भिन्न-भिन्न गुणस्थानकों की अपेक्षा से योगशुद्धि जघन्य-मध्यम और उत्कृष्टादि भेदों से भी होती है। जैसे कि - जिस प्रकार अपना जीव देशविरतिधर बना हो तो उस गुणस्थानक के योग्य जघन्ययोग शुद्धि प्राप्त करता है, उसके पश्चात् मध्यम और उत्कृष्ट, पश्चात् सर्व विरतिवान् यह आत्मा होता है वहाँ भी क्रमशः जघन्य-मध्यम और उत्कृष्ट योगशुद्धि प्राप्त करता है, इस प्रकार क्रमशः जघन्य-मध्यम उत्कृष्ट योगशुद्धि को प्राप्त करना और इस प्रकार क्रमशः विकास होने पर उत्तरोत्तर गुणस्थान के समीपता की प्राप्ति होती है तथा आरोहण सरल और सफलतादायक बनता है। अन्यदर्शनकार इन तीन प्रकार की योगशुद्धि प्राकारान्तर से बताते है। वह इस प्रकार है - [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIINIK A षष्ठम् अध्याय 407)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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