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________________ जो आश्रव है वही बंध का हेतु है, उसीसे जन्म-मरण की परंपरा चलती है क्योंकि आश्रवयोग और बंधयोग वह सांपरिक-कषायरूप है वही आश्रवबंध योग का हेतु है। यह अर्थ युक्तियुक्त घटित होता है। - उसी प्रकार अंतिम देहधारी को संपराय कर्म का वियोग होने से आश्रव योग होने पर भी अनाश्रव कहलाता है। ऐसा पूज्यों का मत है। 2 'षोडशक' और 'ज्ञानसार'५३ में योग के दो भेद बताये है - वे इस प्रकार - सालम्बनो निरालम्बनश्च, योग परो द्विधा ज्ञेयः जिनरूपध्यानं खल्वाद्यस्तत्तत्त्वगस्त्वपरः॥५४ परम योग सालंबन और निरालंबन दो प्रकार का है। समवसरण में बिराजमान ऐसे जिनेश्वर के रूप का जो ध्यान वह सालंबन योग समझना तथा उसके तत्त्व को अरूपी ऐसे केवलज्ञानादि गुणों के अनुसरण का जो ध्यान वह दूसरा अनालंबन योग समझना। आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगविंशिका में भी ये दो भेद किये हैंआलंबणं पि एयं, रूवमरूवी य इत्थ परमु त्ति / तगुणपरिणइरूवो, सुहूमो अणालंबणो नाम // 55 इस योग संबंधी प्रकरण में समवसरणस्थ जिनप्रतिमास्वरूप रूपी और सिद्ध परमात्मा स्वरूप अरूपी दो प्रकार का आलंबन है। वहाँ सिद्ध परमात्मा के गुण जो केवलज्ञानादि है, उसके साथ एकाकारता रूप जो परिणति विशेष वह सूक्ष्म अनालंबन योग है। योगबिन्दु में संप्रज्ञातयोग और असंप्रज्ञातयोग दो प्रकार के योग बताये है - उपर्युक्त जो अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय योग के पाँच भेद कहे है, उसमें चौथे समता योग को महर्षि पतञ्जलि आदि अन्य योगिओं ने संप्रज्ञात समाधि योग कहा है। कारण कि जिसमें यथार्थ उत्कृष्ट रूप से युक्त पर्याय विद्यमान होते है ऐसे ज्ञान से युक्त यह समाधि है। इस समाधि के फलरूप में आत्मा चरम जन्म को प्राप्त करके पुनः नये जन्म-मरण का कारण नष्ट हो जाय ऐसी क्षपकश्रेणी को प्राप्त करके अनुक्रम से केवलज्ञान को प्राप्त करता है। ___इस संप्रज्ञात योग के पश्चात् अन्तिम योग को असंप्रज्ञात समाधि योग अन्यदर्शनकार कहते है उसके बल से सम्पूर्ण कर्म दलिकों को अनुक्रम से क्षय करते तथा सभी मन-वचन-काया की जो प्रवृत्ति है, उसका भी अंत में निरोध करके मोक्षावस्था को सिद्ध करता है।५६ ___ योगविंशिका की टीका में उपाध्याय यशोविजयजी म. ने इसी बात की पुष्टि की है कि जैनदर्शन की जो क्षपकश्रेणी कहलाती है उसे ही अन्यदर्शनकार संप्रज्ञात समाधि कहते है तथा क्षपकश्रेणी के पश्चात् जो केवलज्ञान प्राप्त होता है उसे परदर्शनकार असम्प्रज्ञात समाधि कहते है। इन दोनों में नामभेद है, लेकिन अर्थ बिल्कुल अघटित नहीं है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII 4 षष्ठम् अध्याय 1405)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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