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________________ कि 'अध्यात्मादि' योग भी चारित्रवान् आत्मा को ही प्राप्त होते है। अतः स्थानादि योगों का अध्यात्मिक योगों के साथ संबंध है, तथा अध्यात्म योग का स्थानादि योग में अन्तर्भाव होता है / वह इस प्रकार - (1) देवसेवा पूजा, जप, तत्त्वचिंतन स्वरूप भेदवाला अध्यात्म योग का समावेश अनुक्रम से स्थान, उर्ण और अर्थयोग में होता है। (2) भावनायोग में नियमा प्रवर्धमान परिणाम तथा चित्तवृत्ति-निरोध युक्त ऐसा अभ्यास होता है, इसमें देवसेवादि कायिकप्रवृत्ति में, जापादि वाचिक प्रवृत्ति में, तत्त्वचिंतन मानसिकप्रवृत्ति में चित्तवृत्ति निरोध होता .. है। अतः यह भावनायोग भी स्थान, उर्ण एवं अर्थयोग में समाविष्ट होता है। __(3) आध्यान - प्रशस्त एक अर्थ विषयक चित्त की स्थिरता वह आध्यान कहा जाता है / पवन रहित स्थिर दीपक जैसा चित्त पदार्थ के उचित चिंतन में स्थिर, सूक्ष्मदृष्टि गम्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य आदि तत्त्वों का सूक्ष्म उपयोग आलंबन योग में उसका अभाव होता है। (4) समतायोग - अविद्या के द्वारा इष्ट और अनिष्ट वस्तुओं में जो कल्पना जीवों को होती है उस कल्पना को सम्यग्ज्ञान के बल से दूर करके समभाव की जो वृत्ति वह समतायोग है। (5) वृत्तिसंक्षय - अन्य द्रव्य के संयोग से उत्पन्न मानसिक और कायिक वृत्तिओं का नाश (फिर से उत्पन्न न हो) वह वृत्तिसंक्षय / इन दोनों का निरालंबन योग में समावेश किया है।५० _ 'योगबिन्दु'५१ में इन पाँचों योगों का विस्तार से वर्णन आचार्य हरिभद्रसूरिने किया है। योगशास्त्रों में विविध प्रकार से योग के दो-दो भेद बताये हैं। (1) सानुबन्ध (2) निरनुबन्ध। (1) सानुबन्ध - इस योग से अपाय रहित अर्थात् मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अज्ञान रूप अपाय का सर्वथा अभाव होने पर अपुनर्बंधक आदि योगी मोक्षमार्ग की प्राप्ति में उस प्रकार के अनुबंध रूपं उपादान कारण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म-संपराय, यथाख्यात आदि शुद्ध चारित्र की गुणश्रेणी को बढाते हुए कर्म कलंक का नाश करता है और अनुक्रम से अध्यात्म, भावना, ध्यान, वृत्तिसंक्षय रूप योग जिनको दोषाभाव रूप होते है और उससे अवश्य मोक्ष की सिद्धि होती है। (2) अननुबंध-निरनुबंध - यह दोष से युक्त होने से अशुद्ध योग है, उसमें यम, नियम आदि होने पर भी मिथ्यात्व से युक्त होने से संसारवृद्धि करनेवाला ही है। तथा कांटा, ताप आदि मार्ग गमन में विघ्नकारक होते है उसी प्रकार मोह, मिथ्यात्व आदि भी मोक्षमार्ग में गमनशील आत्माओं को कंटक तथा ताप के समान विघ्न करनेवाले बनते है ऐसा अन्यदर्शनकार भी कहते है। यह (निरनुबंध) योग दो प्रकार का है - (1) आश्रवयुक्त (2) आश्रव रहित (निराश्रव)। (1) साश्रवयोग - जिनको अनेक जन्मों तक संसार में परिभ्रमण करने का है उनको साश्रवयोग होता है। (2) निराश्रव - जिनको एक जन्म के पश्चात् मुक्त बनने का है उस योगी को निराश्रव योग होता है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / TA षष्ठम् अध्याय | 404]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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