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________________ इन पाँचों योगों में से प्रथम के दो योग क्रियात्मक होने से कर्मयोग है और पश्चात् के तीन चिंतनात्मक होने से ज्ञानयोग है। स्थानादि पाँच योग में योग का लक्षण आत्मा को मोक्ष के साथ युंजित करे वह योग / यह लक्षण घटित होने से निरूपचरित अर्थात् वास्तविक योग है। परंतु महर्षि पतञ्जलि चित्तवृत्ति निरोध को योग कहते हैं, कारण कि तेरहवें गुणस्थान के अंत में किया जाता योग निरोध ही मोक्ष का आसन्न कारण है। उससे चित्तवृत्तिनिरोध को निरूपचरित योग कहा है, और उसकी पूर्व-पूर्व भूमिकारूप स्थानादि पांचों योग परंपरा से मोक्ष के कारण बनते हैं, उसीसे स्थानादि पांचों योग चित्तवृत्तिनिरोधात्मक ऐसे मुख्य योग के कारण बनते हैं। परंतु अनंतररूप से मोक्ष के कारण नहीं है। उसीसे साक्षात योग नहीं है, कारण में कार्य का उपचार करके स्थानादि में योगरूपता लायी गई है। षोडशकजी की टीका में भी यम, नियम चित्तवृत्ति-निरोधात्मक योग के अंग होने से अंग में अंगी का उपचार करके योग कहा है। तात्पर्यार्थ चित्तवृत्तिनिरोध में साक्षात् योगरूपता है, और यमादि में योगांगता के कारण और स्थानादि में कार्यकारण भाव होने से उपचरित योगरूपता है। यह पतञ्जलि सूत्रकार के लक्षण को ध्यान में रखकर कहा गया है। जैनदर्शनकार के मान्य ऐसे योग के लक्षण को ध्यान में रखा जाय तो चित्तवृत्तिनिरोध और स्थानादि पांचों योग उभय निरूपचरित है। ___ मोहनीय कर्म और ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के तारतम्य से स्थानादि योगों के असंख्यभेद होते हैं, फिर भी सभी को ध्यान में आ सके ऐसी स्थूलबुद्धि से परिणामों की तरतमता के आधार से चौदह गुणस्थानक के समान योगशास्त्र में बतायी हुई रीति से (1) इच्छा (2) प्रवृत्ति (3) स्थिरता (4) सिद्धि - ये चार भेद किये है। (1) इच्छा - स्थानादि योग से युक्त ऐसे योगी महात्माओं की कथा करने और सुनने में अतिशय प्रीतिवाली और दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक उल्लास से विशेष परिणाम को बढ़ानेवाली ऐसी भावना इच्छा योग कहलाता है। (2) प्रवृत्ति - सर्वत्र उपशमभाव पूर्वक स्थानादि में योग का सेवन वह प्रवृत्ति योग कहलाता है। (3) स्थिरता - स्थानादि में योग बाधक विघ्न उसकी चिंता रहित जो पालन वह स्थिरता योग कहलाता (4) सिद्धि - उस स्थानादि योगों का स्वयं को जो फल प्राप्त होता है, उसी प्रकार का फल दूसरे में भी प्रापक बन सके ऐसा सिद्ध बना हुआ अनुष्ठान सिद्धियोग कहलाता है।४५ उपरोक्त भावों को प्रस्तुत करते हुए अध्यात्मसार के प्रबंध तीसरे का श्लोक इस प्रकार है - इच्छा तद्वत्कथाप्रीतियुक्ताऽविपरिणामिनी। प्रवृत्तिः पालनं सम्यक् सर्वत्रोपशमान्वितम्। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII षष्ठम् अध्याय | 402
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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