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________________ * योग का लक्षण निश्चय नय से - जो अवश्य फल देता है अथवा शीघ्र फल की प्राप्ति हो उसे निश्चयनय की अपेक्षा से योग कहा जाता है। . निश्चय नय का लक्षण योगशतक' में बताते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि कहते है कि सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यग् चारित्र इस रत्नत्रयी का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना, आत्मा के साथ मिलन होना, आत्मा में अवस्थित होना ही निश्चय नय से योग कहलाता है। क्योंकि वही आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़ता है ऐसा लक्षण मैं अपनी मति-कल्पना से नहीं परंतु योगियों के नाथ तीर्थंकर भगवंतों ने कहा है। 13 / / .. जिस प्रकार इष्ट नगर में पहुँचने के लिए उसके मार्ग का यथार्थ ज्ञान उस मार्ग के यथार्थ ज्ञान के प्रति विश्वास, उसी मार्ग पर गमन इन तीनों का समन्वय होना आवश्यक है। तब वह इष्ट नगर की प्राप्ति कर सकता है। उसी प्रकार मोक्षमार्ग की प्राप्ति में भी सम्यग्ज्ञानादि हेतु है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र' में कहा है “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।" सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् चारित्र ही मोक्ष का श्रेष्ठ मार्ग है। इस रत्नत्रयी को अपनाकर अनेक आत्मा मोक्ष के अधिकारी बनते है। इसीलिए आचार्य हरिभद्रसूरिने मूल श्लोक में 'जोगिनाहेहिं पद में बहुवचन लिखकर यह सूचित किया है कि मुक्त जीव एक, दो, पाँच या संख्यात-असंख्यात नहीं है परंतु अनंत है और इसके द्वारा जो ईश्वर सर्वज्ञ परमात्मा एक ही है ऐसा मानते हैं उनका प्रतिक्षेप हो जाता है। ____ जो मुक्तात्मा को एक ही अद्वैत माने तो अन्य संसारी जीवों के द्वारा मुक्ति प्राप्ति के लिए किया जाता हुआ योग का सेवन निरर्थक होने का प्रसंग आ जायेगा। कारण कि ईश्वर एक होने से दूसरे जीव की मुक्ति असंभवित होगी। दूसरे जीव को मोक्ष गमन का अवसर ही प्राप्त नहीं होगा। जिससे योग सेवन भी नहीं करेंगे और धीरे-धीरे योग मार्ग ही विलीन हो जायेगा, जो कि यथार्थ नहीं है।१५ साथ ही आचार्य हरिभद्रसरि कहते है कि निश्चय नय का यह लक्षण तभी सार्थक सिद्ध होता है जब कि वे तीनों रत्नत्रयी आत्मा से जुड़े और जब ये तीनों तत्त्व आत्मा से जुड़ते है तभी कर्मों का क्षय होता है / कर्मों का क्षय होते ही आत्मा मोक्षमार्ग का अधिकारी बन जाता है। ___ योग का लक्षण व्यवहार नय से - आगमों में निश्चय नय को जितना महत्त्व दिया है उतना ही महत्त्व व्यवहार नय को भी दिया है। अतः आचार्य हरिभद्रसूरिने गुरुविनयादि व्यवहार को भी योग के अन्तर्गत समाविष्ट किया है, क्योंकि उन्होंने इस सत्य को उजागर किया है कि यदि निश्चय नय के योग को प्राप्त करना हो, लोकोत्तर कोटी के योग को पाना हो तो लौकिक व्यवहार को भी अपनाना होगा / अतः उन्होंने 'योगशतक' में व्यवहार नय का उल्लेख इस प्रकार किया है - ववहारओ उ एसो, विन्नेओ एयकारणाणं पि। जो संबंधो सो विय, कारण कज्जोवयाराओ।। गुरु विणओ सूस्सूसाइया य विहिणा उ धम्मसत्थेसु। तह चेवाणुट्ठाणं विहि-पडिसेहेसु जहसत्तिं // 16 | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / षष्ठम् अध्याय |393
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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