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________________ | अनुक्रमणिका प्रथम अध्याय आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व 1. जन्मस्थान 2. शिक्षा 3. समय 4. प्रतिज्ञाबद्ध प्रोन्नत महापुरुष 5. दीक्षा 6. आचार्य 7. पश्चाताप के रूप में ___ 1444 ग्रन्थों की रचना 8. याकिनी महत्तरा के उपकारों को धर्मपुत्र बनकर ग्रन्थों से चिरस्मरणीय बनाना 9. कृतित्व में व्यक्तित्व 10. दार्शनिक दृष्टिकोण 11. एकान्त का समादर ___ अनेकान्त का स्वीकार 12. विद्या वाङ्मय का कर्मठ कौशल 13. समन्वयवादी 14. वैदिक संस्कृति से श्रामण्य संस्कति की सजीवता 15. अन्यदर्शनकारों के प्रति सम्मानीय शब्दों का संयोजन 16. उदाराशय बनकर अन्यदर्शनों का अपने ग्रन्थ में समुल्लेख 1-80 1 ||17. सम्पूर्ण वाङ्मय के विषय से अवगत 37 || 18. योग के विषय में अभूतपूर्व संकलन 41 19. संस्कृत के साथ प्राकृत को प्राथमिकता 43 20. श्रुतों का समदर्शित्वरुप से संदोहन 44 कृतित्व :1. सम्पूर्ण विवरण प्राप्त कृतियाँ 2. अनुपलब्ध संकेत प्राप्त कृतियाँ 3. दार्शनिक कृतियों का विवेचन 1. शास्त्रवार्ता समुच्चय 2. धर्म संग्रहणी 3. षड्दर्शन समुच्चय 4. अनेकान्त जय पताका 5. न्याय प्रवेश वृत्ति 6. न्यायावतारवृत्ति 7. न्याय विनिश्चय , 8. ललित विस्तरावृत्ति 9. सर्वज्ञ सिद्धि 10. योग विंशिका 11. योग शतक 12. योगदृष्टि समुच्चय 13. योगबन्दुि 14. लोकतत्त्व निर्णय 15. अनेकान्तवाद प्रवेश 28 VIIII
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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