________________ वैसे स्थिति बन्ध शब्द का प्रयोग गमन रहितता वस्तु के अस्तित्व विद्यमानता रहने के काल आयु के अर्थ में किया जाता है। लेकिन यहाँ स्थिति का अर्थ है आत्मा के साथ संश्लिष्ट कार्मण पुद्गल स्कंध की कर्म रूप में बने रहने की काल मर्यादा। बन्ध हो जाने के बाद जो कर्म जितने समय तक आत्मा के साथ अवस्थित रहता है वह उसका स्थिति काल कहलाता है और बन्धनेवाले कर्मों में इस स्थिति काल की मर्यादा के पड़ने को स्थिति बंध कहते है। जैन शास्त्रों में कर्मों की स्थिति का वर्णन अनेक दृष्टि से किया गया है। जैसे उत्कृष्ट, जघन्य और उपरितन स्थिति, सान्तर-निरन्तर स्थिति, आदि अनादि स्थिति आदि। स्थिति के उक्त भेदों में उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति ये दो प्रमुख है। आचार्य हरिभद्रसूरि ‘धर्मसंग्रहणी' आदि ग्रन्थों में इन दो स्थिति का वर्णन करते हुए कहते है - आत्मा में उत्पन्न हुए एकपरिणाम से संचित कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति तीर्थंकर और गणधर भगवंतों ने जो बतायी है उसे ही मैं संक्षेप से कहता हूँ-२९१ / / स्थिति अर्थात् सांसारिक शुभ अथवा अशुभ फल देने वाला काल / बंध होने के समय से लेकर निर्जीव होने के अन्तिम क्षण के काल को कर्म की उत्कृष्ट स्थिति कहते है तथा प्रत्येक प्रकृति की जघन्य स्थिति का बन्ध उनके बन्ध-विच्छेद के समय में होता है। अर्थात् जब उन प्रकृतियों के बन्ध का अन्तकाल आता है तभी जघन्य न्यूनतम स्थिति बंधती है। उसे जघन्य स्थिति कहते है। उत्कृष्ट स्थिति इस प्रकार है - आदिल्लाणं तिण्हं चरिमस्स य तीस कोडिकोडीओ। अंतराण मोहणिज्जस्स सत्तरी होति विन्नेया। नामस्स य गोत्तस्स य वीसं उक्कोसिया ठिती भणिया। तेतीस सागराइं परमा आउस्स बोद्धव्वा // 292 आद्यतीन-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तिम अंतराय इन चार कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति 30 कोडाकोडी सागरोपम है। मोहनीय की 70 कोडाकोडी सागरोपम नाम और गोत्र की 20 कोडाकोडी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है। आयुष्य की उत्कृष्ट स्थिति 33 सागरोपम है। जघन्य स्थिति - वेदणियस्स उ बारस नामगोयाण अट्ठ तु मुहुत्ता। सेसाण जहन्नठिती, भिन्नमुहुत्तं विणिदिट्ठा / / 293 वेदनीय की 12 मुहूर्त नाम गोत्र की 8 मुहूर्त और शेष कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII | पंचम अध्याय | 376