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________________ सत्ता उत्तर प्रकृति 148 147 138 138 148 गुणस्थानंक | मूलप्रकृति मिथ्यात्व सास्वादन 147 मिश्र अविरत सम्यग्दृष्टि 148 देशविरति 148 प्रमत्त संयत . |अप्रमत्त संयत 148 अपूर्वकरण 148 अनिवृत्ति बादर 148 |क्षपक श्रेणी में सूक्ष्म संपराय / 148 क्षपक श्रेणी में . 8 उपशांत-कषाय क्षीण-कषाण 10 सयोगी केवली 85 अयोगी केवली |12/13 138 113 | 112 | 105 | 103 102 148 इस प्रकार बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता में उन-उन गुणठाणों के योग्य प्रकृतियाँ का अपने-अपने गुणस्थानक तक बंधादि रहता है और उत्तर गुणस्थानों में बंधादि का विच्छेद होता जाता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'सम्यक्त्व-सप्तति' में मूल चौदह पिंडप्रकृति और उत्तर पाँसठ प्रकृतियों का वर्णन गुणस्थान में किया है। जैसे कि - देवनरकगत्योराद्यानि चत्वारि गुणस्थानकानि, तिर्यग्गतौ पञ्च मनुष्यगतौ चतुद्देशापि।२९० देवनरकगति में प्रथम के चार गुणस्थानक, तिर्यंचगति में पाँच एवं मनुष्यगति में पांच गुणस्थानक होते है। इसी प्रकार इन्द्रिय काय आदि में भी घटाये है। (15) कर्म स्थिति - कर्मों की समय मर्यादा का विचार जिसमें किया जाय उसको शास्त्र में स्थितिबंध कहते है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIII III पंचम अध्याय | 375 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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