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________________ ही प्रत्याख्यानावरण क्रोध भी कुछ उपायों से शान्त हो जाता है। सूखी लकडी में तेल आदि की मालिश करने से नरमाई आने के कारण संभावना हो सकती है / इसी प्रकार प्रत्याख्यान मान प्रयत्न और परिश्रम द्वारा शान्त होनेवाला होता है। प्रत्याख्यानावरण माया के परिणाम चलते हुए मूतने वाले बैल की मूत्र की रेखा की वक्रता के समान होते है। इस मूत्र रेखा की टेढी-मेढी लकीर पवन आदि से सूख जाने पर मिट जाती है। वैसे ही कुटिल परिणाम परिश्रम और उपाय से दूर हो जाता है। काजल का रंग साधारण परिश्रम से दूर हो जाता है वैसे ही प्रत्याख्यानावरण लोभ परिणाम कुछ प्रयत्न से दूर हो सकते है। इनकी काल मर्यादा चार माह की बतायी गयी है और इसके उदय से जीव मनुष्य गति के योग्य कर्मों का बन्ध करता है। (4) संज्वलन - जिस कषाय का उदय आत्मा को यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति न होने दे अर्थात् 'परिषहों' और उपसर्गों के द्वारा श्रमण धर्म सर्वविरति चारित्र पालन करने में प्रभावित करे उसे संज्वलन कहते है।३७ संज्वलन की व्याख्या आचार्य हरिभद्रसूरि ने श्रावक प्रज्ञप्ति टीका में विशेष रूप से की है। वह इस प्रकार 'संज्वलन' में सम् उपसर्ग का अर्थ यदि ईषत् करते है तो जो परिषह आदि के आने पर चारित्रवान् को भी किंचित् जलाते है, संतप्त किया करते है, वे संज्वलन क्रोधादि कहलाते है। अथवा ‘सम्' का अर्थ एकीभाव होता है, तदनुसार जो चारित्र के साथ एकीभूत होकर जलते है, प्रकाशित रहते है अथवा जिनके उदित रहने पर भी चारित्र प्रकाशमान रहता है उसे वे नष्ट नहीं कर सकते है, उनको संज्वलन क्रोधादि समझना चाहिए।१३८८ संज्वलन क्रोधादि चतुष्क के परिणाम क्रमशः जलरेखा, वेंतलता, अपलेहिका (खुरपा) हल्दी के समान होते है। अर्थात् संज्वलन क्रोध जल में खींची जाने वाली रेखा के समान तत्काल शांत हो जाता है। बिना परिश्रम के नमाये जानेवाले वेंत के समान संज्वलन मान क्षण-मात्र में अपने आग्रह को छोड़कर नमने वाला होता है। अवलेखिका यानी वांस का छिलका। जैसे वांस के छिलके में रहनेवाली वक्रता बिना श्रम के सीधी हो जाती है, वैसे ही संज्वलन माया के परिणाम सरलता से दूर हो जाते है, सहज ही छूटने वाले हल्दी के रंग के समान संज्वलन लोभ के परिणाम है। इसकी काल मर्यादा एक पक्ष है। इन कषायों की स्थिति में जीव को देवगति योग्य कर्मों का बन्ध होता है। संज्वलन क्रोधादि के स्वरूप को बतानेवाली गाथाएँ इस प्रकार है - जलरेणु-पुढवि-पव्वयराईसरिसो चउव्विहो कोहो। तिणसलयाकट्ठट्ठिय सेलत्थंभोवमो माणो॥१॥ माया वलेहि गोमुत्तिमिढसिंगघणवंसमूलसमा। लोहो हलिद्द खंजन कद्दम किमिरागसारित्थो॥२॥ पक्ख चउम्मास वच्छरजावजीवाणुगामिणो कमसो। देवनरतिरिनारयगति साहणहेयवो भणिया॥ 3 // 139 आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI NA पंचम अध्याय 347
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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