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________________ उसी आचारों से हीन ज्ञानी केवलज्ञान के भार को वहन करता है / लेकिन उसकी सद्गति नहीं होती है। अर्थात् आचारों के ज्ञान के साथ आचारवान् बनना भी अत्यावश्यक है। क्योंकि स्वयं आचारों का ज्ञाता है लेकिन स्वयं शिथिलाचार बनकर आचार का पालन नहीं करना है तो वह श्रोताओं का चाहे जितना जोश में आकर उपदेश देगा तो भी उसका प्रभाव श्रोताओं को जितना पड़ना चाहिए उतना नहीं पड़ता है।३२७ ___ गच्छ के नायक आचार्य स्वयं आचारों का पालन करते है और दूसरे आत्माओं को भी आचार पालन का उपदेश देते है जिससे वे स्वयं तो संसार सागर से पार होते है और दूसरों को भी पार उतारने में समर्थ बनते है। जैसे कि उपाध्याय यशोविजयजी म.सा. ने 'ज्ञानसार के क्रिया अष्टक' में कहा है। ज्ञानी क्रियापरः शान्तो भावितात्मा जितेन्द्रियः। स्वयं तीर्णो भवाम्भोधेः परास्तारयितुं क्षमः // 328 जो ज्ञानी क्रिया में तत्पर शान्त भावित बना हुआ इन्द्रियो का विजेता हो वह स्वयं तो भव रूपी समुद्र से तैरता है और दूसरों को भी तिराने में समर्थ बनता है। यदि वह आचार रहित है तो लोहे की नाव की भाँति स्वयं तो डूबता ही है और उसका सहारा जो लेता है उनको डुबाता है। क्योंकि क्रिया से रहित मात्र ज्ञान अनर्थ का कारण बन सकता है गति के बिना मार्ग का ज्ञाता भी इच्छित स्थान को प्राप्त नहीं करता है। अत: आचार की महानता और प्रभावकता आज दिन तक चली आ रही है। __आचारवान् का जीवन नवपल्लवित बन जाता है / आचार पालन की तत्परता जीवन को भव्य बना देती है। अत: अन्य दर्शनों की अपेक्षा जैन वाङ्मय में आचारों पर विशेष महत्त्व दिया गया है तथा साधुओं के लिए कठोर आचार पालन का उपदेश दिया गया है। आचार के पालन के साथ शुद्ध उपयोग होना भी आवश्यक है तभी वह मोक्ष मार्ग का कारण बनता है अन्यथा नहीं, क्योंकि अभव्य आत्मा भी श्रमण - जीवन में आचारों का परिपूर्ण पालन करता है लेकिन भावों की शुद्धता नहीं होती है / अत: उसे सांसारिक सुखों की ही प्राप्ति होती है। लेकिन भव्य आत्मा शुभ भाव पूर्वक आचारों का पालन यदि करता है, तो सर्वार्थसिद्ध देवलोक तथा परंपरा से मोक्ष पद प्राप्त करता है। अन्य दर्शनों में भी आचारों का उपदेश तो दिया है लेकिन आचार संहिता जितनी जैन दर्शन में प्रशंनीय एवं अनुमोदनीय कष्टमय उतनी शायद ही अन्य दर्शनों की होगी। ____जैन वाङ्मय में आचारों का उत्सर्ग एवं अपवाद दोनों रूपों से निरूपण किया गया है। जो गीतार्थ होते है वे ही उनको जानकर उसमें प्रवृति करते है। आचारों का पालन करता करता मुमुक्षु आत्मा दृढ़ वैराग्यवान् बन जाता है तथा परमात्मा के वचनों पर श्रद्धावान् बनता हुआ अपनी जीवन नैया को पार लगा देता है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / IA चतुर्थ अध्याय 309
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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