________________ 'तत्त्वार्थ टीका' में इन पाँच भावनाओं का स्वरूप निर्दिष्ट है लेकिन वहाँ प्रथम भावना को अन्तिम और अन्तिम भावना को प्रथम इस क्रम से दी है।२५९ / / 5) सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं - सर्वथा परिग्रह का त्याग करना पाँचवा महाव्रत है। आचारांग' में जिसका पाठ इस प्रकार मिलता है। हे भगवन्त ! मैं पाँचवे महाव्रत को स्वीकार करता हूँ। पंचम महाव्रत में सभी प्रकार के परिग्रह का त्याग करता हूँ। अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त किसी भी प्रकार के परिग्रह को मैं स्वयं ग्रहण नहीं करूँगा दूसरों से ग्रहण नहीं करवाऊँगा और परिग्रह करने वालों का अनुमोदना नहीं करूंगा। आत्मा से भूतकाल में परिगृहीत परिग्रह का व्युत्सर्ग करता हूँ।२६०० पंच मगो गामाइसु अप्प बहुविवजणं चेव // 261 गाम, नगर आदि में अल्प, बहु सभी प्रकार के परिग्रह का सर्वथा सुप्रणिधान पूर्वक त्याग करना पांचवा मूल गुण है। 'धर्मसंग्रहणी' में आचार्य हरिभद्रसूरि पाँचवे महाव्रत की महानता स्पष्ट करते हुए कहते है कि इस महाव्रत में परिग्रह का सर्वथा त्याग करने की बात की है लेकिन परिस्थूल बुद्धि वालों के चित्त में यह बात सुचारू रूप से स्थिर नहीं बन रही है वे कहते है कि रत्नत्रयी' की वृद्धि में हेतु होने से ग्राम आदि परिग्रह को निर्दोष माना Mic लेकिन यह मान्यता उनकी युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि बुद्ध धर्म और संघरूप इस रत्नत्रयी को ग्राम आदि के परिग्रह से शुभदायक कोई फल प्राप्त नहीं होता है परंतु पृथ्वी आदि षट्काय जीवों के विनाश रूप आरंभ में प्रवृत्ति के कारण अपकार ही होता है।२६२ इस महाव्रत का निर्दोष परिपालन करने हेतु ‘पञ्चवस्तुक' में उसके अतिचार बताये है उनको जानकर उसका त्याग करना चाहिए। पंचमगम्मि अ सुहुमो अइआरो एस होइ नायव्वो। कागाइ साण गोणे कप्पट्ट गरक्खण ममत्ते / / दव्वाइआण गहणं लोहा पुण बायरो मुणेअव्वो। अइरित्तु धारणं वा मोत्तुं नाणाइ उव यारं / / 263 शय्यातर के द्वारा धूप में सुखाने हेतु रखे तिल आदि का काल, श्वान् और गाय आदि से रक्षण करना तथा गृहस्थ के बालक पर कुछ ममत्व भाव करना यह पाँचवे महाव्रत के सूक्ष्म अतिचार है। लोभ से धन आदि वस्तु लेनी अथवा इस व्रत में बादर अतिचार है। इस को व्रत दृढ बनाने हेतु पाँच भावनाएँ भी आचारांग में बताई गई है। वह इस प्रकार हैं - 1. जीव क्षेत्र से मनोज्ञ तथा अमनोज्ञ शब्दों को सुनता है परन्तु वह उनमें आसक्त न हो, रागभाव न करे | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIII VA चतुर्थ अध्याय 294