SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संभोग के समय रु की नालिका के दृष्टांत के समान सभी जीव एक साथ विनाश होते है। अत: जिनेश्वरभगवंत ने शील को सभी व्रतों की शोभा बढ़ाने वाला कहा है। जो विषयरूपी हलाहल विष के द्वारा चलायमान नहीं हुए वे महाधैर्यवंत है। आत्मा का कल्याण करने वाले सुविहित मुनियों को स्त्री संग तथा स्त्री का रूप देखने का भी निषेध किया है, कारण कि ब्रह्मचर्य उत्तम आभूषण है। जिस प्रकार कुर्कट के बच्चे को बिल्ली के बच्चे से हमेशा भय रहता है उसी प्रकार निश्चय ब्रह्मचारी मुनि को स्त्री के संग से भय होता है। पुरुष के आसन पर स्त्री तीन प्रहर तक न बैठे, और स्त्री के आसन पर पुरूष अन्तर्मुहूर्त तक न बैठे। * अब्रह्मचर्य घोर और परिणाम में भयंकर है उस कारण से निर्ग्रन्थों को मैथुन सेवन का सर्वथा त्याग करना चाहिए।२५६ इस प्रकार मैथुन सेवन त्याग करने वाले निर्ग्रन्थ स्व त्याग के साथ ही दूसरे जीवो को अभयदान देकर पर कल्याण (परोपकार) करते है। इस व्रत का सुंदर एवं निर्दोष पालन के लिए अतिचारों को जानकर उसका त्याग करना चाहिए। ‘पञ्चवस्तुक' में निर्दिष्ट अतिचार इस प्रकार है। मेहुन्नस्सइआरो करकम्माईहिं होइ नायव्वो। तग्गुत्तीणं च तहा अणुपालणमो ण सम्मं तु॥ हस्तकर्म आदि से मैथुनविरमणव्रत में अतिचार लगते है इसमें परिणाम की विचित्रता से अतिचार में सूक्ष्म - बादर भेद होते है। ब्रह्मचर्य की नव वाड़ों का बराबर पालन न करने पर भी अतिचार लगते है।२५७ इस व्रत को सुस्थिर बनाने के लिए इस व्रत की भी पाँच भावना हैं वह इस प्रकार 1) निर्ग्रन्थ साधु पुनः पुनः स्त्रियों की कामजनक कथा न करे बार-बार स्त्रियों की कथा कहने वाला निर्ग्रन्थ शान्तिरूप चारित्र और शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करने वाला होता है तथा शान्तिरूप केवलि प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट भी हो जाता है। 2). निर्ग्रन्थ कामभावपूर्वक स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को सामान्य रूप से या विशेष रूप से नहीं देखे। रागपूर्वक देखने से चारित्र एवं ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट हो जाता है। 3) निर्ग्रन्थ पूर्वाश्रम में स्त्रियों के साथ की हुई पूर्व रति एवं पूर्व काम क्रीडा का स्मरण नहीं करे। पूर्वक्रीडा का स्मरण करने वाला साधु ब्रह्मचर्य एवं चारित्र से भ्रष्ट होता है। 4) निर्ग्रन्थ प्रमाण से अधिक अतिमात्रा में आहार पानी का सेवन नहीं करे और नहीं स्निग्ध, स्वादिष्ट भोजन करे, वैसा करने पर चारित्र एवं ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट हो सकता है। 5) निर्गन्थ श्रमण स्त्री, पशु और नपुंसक से युक्त शय्या और आसन आदि का सेवन न करे जो ऐसा सेवन करता है तो वह चारित्र को नष्ट कर देता है ब्रह्मचर्य का भंग कर देता है, और केवलि प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है।२५८ | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI चतुर्थ अध्याय 2930
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy