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________________ श्रावक प्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थों में अनेक शंका समाधानों के साथ हिंसा अहिंसा रूप से महत्त्वपूर्ण विचार भी किया है। चतुर्थ अणुव्रत के प्रसंग में जहाँ उपासगदशाङ्ग में स्वदारसंतोष का ही विधान किया गया वहाँ हरिभद्रसूरि ने पञ्चाशकसूत्र आदि में पापस्वरूप होने से परदारगमन का भी त्याग कराया गया है यहाँ इस व्रत के दो रूप बताये एक परदारपरित्याग और दूसरा स्वदार संतोष / टीका में तो वहाँ तक कहा है कि परदारपरित्यागी वेश्या का परित्याग नहीं करता तथा स्वदारसंतोषी वेश्यागमन नहीं करता। ___उपासगदशाङ्ग, तत्त्वार्थ आदि में दिग्वत आदि सात उत्तरव्रतों का उल्लेख केवल ‘शिक्षापद' के नाम से किया गया है जबकि श्रावकधर्मविधि प्रकरण आदि में दिग्वत, उपभोग, परिभोगपरिमाण और अनर्थदण्डविरमण इन तीन का उल्लेख गुणव्रत एवं शेष चार सामायिक आदि का उल्लेख शिक्षाव्रत के नाम से किया है तथा तत्त्वार्थभाष्य, पञ्चाशक आदि में पाँच अणुव्रत को मूल और शेष सातों को उत्तरव्रत कहकर उल्लेख किया है तथा धर्मबिन्दु और तत्त्वार्थ में उनका क्रमव्यत्य भी देखा जाता है। तथा इन व्रतों के अतिचारों में क्रमव्यत्य है छठे के बाद दसवाँ तत्पश्चात् 8,9,11,7 वाँ 12 वाँ लिया है जबकि श्रावक प्रज्ञप्ति आदि में इस प्रकार क्रमभेद नहीं है। . तत्त्वार्थसूत्र में मृषावाद के अतिचारों में न्यासापहार और साकारमन्त्र को ग्रहण किया है जबकि आचार्य हरिभद्रसूरि ने पञ्चाशक आदि ग्रन्थों में सहसा- अभ्याख्यान और स्वदारमन्त्रभेद इन दो अतिचारों का निर्देश किया है। अनर्थदण्ड के अतिचारों में असमीक्ष्याधिकरण' के स्थान पर श्रावक प्रज्ञप्ति में 'संयुक्ताधि करण किया है। ___ उपासकदशाङ्ग में शिक्षापद का स्वरूप बहुत ही संक्षेप में बताया गया है परन्तु पञ्चाशकसूत्र की टीका में आचार्य अभयदेव सूरि ने कुछ विशेष विस्तार किया है जब कि आचार्य हरिभद्रसूरि ने उसका विवेचन बहुत ही विस्तार से किया है इसमें सबसे पहले सावधयोग का त्याग और असावद्ययोग का सेवन को सामायिक का स्वरूप प्रकट करते हुए यह शंका व्यक्त की गयी है कि सामायिक में अधिष्ठित गृहस्थ जब परिमित समय के लिए सम्पूर्ण सावद्ययोग को पूर्णतया छोड़ देता है तब वस्तुत: उसे साधु ही मानना चाहिए / इस शंका के समाधान में * उसे साधु न मानते हुए। यहाँ शिक्षा, गाथा, उपपात, स्थिति, गति, कषाय, बन्धक, वेदक, प्रतित्ति और अतिक्रम इन द्वारों के आश्रय से गृहस्थ की साधु से भिन्नता प्रदर्शित कही गई है क्योंकि उपमा हमेशा एकदेशीय होती है। अर्थात् एक देश से समानता होती है सर्वथा सादृश्यता नहीं होती है। साथ में ही सामायिक लेने की विधि में आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने श्रावक प्रज्ञप्ति की टीका में आचार्य अभयदेवसूरि ने पञ्चाशक की टीका में तथा पञ्चाशक टीका के अनुवादक राजशेखर विजयजी ने स्पष्ट लिखा है कि श्रावक गुरु के पास आकर तीन प्रकार से नमस्कार करके तत्पश्चात् करेमि भंते सूत्र का पाठ बोलकर सामायिक करे फिर इरियावहियं के द्वारा प्रतिकमण करे। एयाए विहिए गंता तिविहेण नमिऊण साहुणो पच्छा सामाझ्यं करेइ, करेमि भंते सामाइयं, सावजं जोगं पच्चक्खामि दुविहं तिविहेणं जाव साहुं पज्जुवासामिति काऊण पच्छा इरियावहियं पडिक्कमइ। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA चतुर्थ अध्याय | 277 ]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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