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________________ जैसे कि - ___पौषध को समाप्त करते हुए श्रावक को नियम से साधुओं को दिये बिना पारणा नहीं करना चाहिए, किन्तु उन्हें देकर ही पारणा करना चाहिए। इसमें जो वस्तु साधु को नहीं दी गयी है उसे श्रावक को नहीं खाना चाहिए। इस व्रत का वर्णन पञ्चाशक 195, श्रावक धर्मविधिप्रकरण१९६, धर्मबिन्दु१९७, उपासक दशाङ्ग१९८ आदि में भी मिलता है तथा टीका में विस्तार से बताया गया है। इस व्रत का परिपालन भी निरतिचार ही करना चाहिए इस उद्देश्य से उसके अतिचारों का निर्देश इस प्रकार गया है। सच्चित्तनिक्खिणयं वजे सच्चितपिहणयं चेव। कालाइक्कमदाणं परववएसं च मच्छरियं // 199 सचित्तनिक्षेप, सचित्तपिधान, कालातिक्रमदान, परव्यपदेश और ये पाँच अतिचार है / श्रावक को उनका त्याग करना चाहिए। 1. सचित्तनिक्षेप-साधु को देने योग्य वस्तु सचित्त पृथ्वी, पानी आदि के ऊपर रख देना। 2. सचित्तपिधान-साधु को देने योग्य वस्तु फल आदि से आच्छादित करना। 3. कालातिक्रम - नहीं वहोराने की इच्छा से भिक्षा का समय व्यतीत हो जाने के बाद या भिक्षासमय पहले निमंत्रण देना। 4. परव्यपदेश - नहीं देने की भावना से अपनी वस्तु होने पर भी यह दूसरों की है ऐसा साधु के समक्ष दूसरों को कहना। 5. मात्सर्य - मात्सर्य यानि सहन नहीं करना / साधु कोई वस्तु मांगे तो उसके ऊपर क्रोध करना अथवा इर्ष्या से साधु को वहोराना इन अतिचारों का वर्णन श्रावक धर्मविधि प्रकरण२००, पश्चाशक२०९, धर्मबिन्दु२०२, उपासक दशाङ्ग२०३, तत्त्वार्थ२०४, वंदितासूत्र२०५ आदि में भी मिलते है। परन्तु धर्मबिन्दु और तत्त्वार्थ सूत्र आदि में अतिचारों के क्रम व्यत्य है। ___ पूर्वोक्त श्रमणोपासक धर्म में अणुव्रत और गुणव्रत तो यावत्कथिक-जीवन पर्यन्त पालन करने योग्य है, पर शिक्षाव्रत अल्पकालिक है। इस प्रकार अणुव्रत, गुणव्रत तथा शिक्षाव्रत का निरूपण किया गया है। जो कि जैनवाङ्मय में सुप्रसिद्ध है। अस्तु श्रावकाचार के पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत इन बारहो व्रतों में उपसाकदशाङ्ग आदि आगम एवं आचार्य हरिभद्रसूरि कृत कृतियों में कुछ भिन्नता एवं विशेषता चिन्तन करने पर सामने आती है वे इस प्रकार है। उपासदशाङ्ग में प्रथम गुणव्रत का सामान्यरूप से प्रतिपादन किया गया है। जबकि आचार्य हरिभद्र ने [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIION चतुर्थ अध्याय | 276]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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