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________________ इस प्रकार है - एक जाति की दो से अधिक संख्यावाली वस्तु को बहु कहते है और एक जाति की दो संख्या तक की वस्तु को अबहु कहते है। दो से अधिक जातिवाली वस्तुओं को बहुविध कहते है और दो तक की जातिवाली वस्तुओं को एकविध अथवा अल्पविध कहते है। शीघ्रगतिवाली वस्तु को क्षिप्र और मंद गतिवाली को अक्षिप्र कहते है। अप्रकट को अनिश्चित और प्रकट को निश्चित कहते है। बिना कहे हुए कथन को अनुक्त, कहे हुए कथन को उक्त कहते है। तदवस्थ को ध्रुव तथा उससे प्रतिकूल को अध्रुव कहते है। यह बारह ही अवग्रह ईहा अपाय और धारणा के होते है। उपरोक्त 28 x 12 से गुणा करने पर 336 तथा चार बुद्धि औत्पातिकी, वैनयिकी, कायिकी, पारिणामिकी संयुक्त करने पर 340 भेद होते है। तात्पर्यार्थ - मतिज्ञान के निमित्त अपेक्षा से दो भेद - (1) इन्द्रिय निमित्तक (2) अनिन्द्रिय निमित्तक। __ अवग्रह, ईहा, अपाय, धारणा की अपेक्षा से चार भेद है। ये सभी मन और इन्द्रियों से होने के 4 x 6 = 24 और व्यञ्जनावग्रह के 4, 24+4=28 भेद मतिज्ञान / इन 28 भेदों को बहु आदि से गुणा करने पर 336 तथा चार बुद्धि संयुक्त करने पर 340 भेद मतिज्ञान के होते है। इस प्रकार के भेदों का वर्णन नन्दि हारिभद्रीयवृत्ति,५६ तर्कभाषा,५७ तत्त्वार्थसूत्र, कर्मग्रंथ९ आदि में मिलता है। श्रुतज्ञान - श्रुतज्ञान का विषय मतिज्ञान की अपेक्षा से महान् है। श्रुतज्ञान दो प्रकार का है। अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य / इसमें अंगबाह्य के अनेक भेद है। अंगप्रविष्ट के बारह भेद है। ___ अंगबाह्य में जैसे कि - सामायिक, चतुर्विंशति, वन्दना, प्रतिक्रमण, कार्योत्सर्ग, प्रत्याख्यान, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, निशीथसूत्र, महानिशीथ सूत्र, चंद्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति इत्यादि इसी प्रकार ऋषियों के द्वारा कहे हुए और भी अनेक भेद है। - अंगप्रविष्ट के बारह भेद है। आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्या प्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा. उपासकदशाङ्ग, अन्तकृद्दशाङ्ग, अनुत्तरौपादिकदशाङ्ग, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद। श्रुतज्ञान के भेद वक्ता की विशेषता की अपेक्षा से है। - अपने स्वभावानुसार प्रवचन की प्रतिष्ठापना करना ही जिसका फल है, ऐसे तीर्थंकर नामकर्म के उदय से सर्वज्ञ सर्वदर्शी अरिहंत भगवान ने अपनी मधुर देशना में जो कुछ प्रतिपादन किया, जिनकी उत्तम अतिशयों से युक्त वचनऋद्धि तथा बुद्धिऋद्धि से परिपूर्ण अरिहंत भगवान के सातिशय शिष्य गणधरों के द्वारा जो रचना के गई, उसको अंग प्रविष्ट कहते है। - गणधर भगवंतों के अनन्तर होनेवाले प्रज्ञावान् आचार्यों के द्वारा जिनकी वचन शक्ति एवं मतिज्ञान की शक्ति परमोच्च प्रकर्ष को प्राप्त कर चुकी है, तथा जिनका आगम श्रुतज्ञान अत्यंत विशुद्ध है, काल दोष से एवं संहनन और आयु की कमी आदि दोषों से जिनकी मेधाशक्ति अत्यंत कम हो गई ऐसे शिष्यों पर अनुग्रह करने के लिए जिनकी रचना हुई, उनको अंग बाह्य कहते है।६० श्रुतज्ञान के चौदह एवं बीस भेद शास्त्रों में बताये है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIN [ तृतीय अध्याय | 2132
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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