________________ व्यञ्जन पदार्थ का अवग्रह ही होता है ईहा आदि नहीं होते / इस तरह से अवग्रह तो दोनों ही प्रकार के पदार्थ का हुआ करता है। व्यञ्जन का भी और अर्थ का भी, जिसको कि क्रम से व्यञ्जनावग्रह तथा अर्थावग्रह कहते है। ईहा आदि शेष तीन विकल्प अर्थ के ही होते है। जिस प्रकार मिट्टी के किसी सकोरा आदि बर्तन के ऊपर जल की बूंद पडने से पहले तो वह व्यक्त नहीं होती, परन्तु पीछे से वह धीरे-धीरे क्रम से पड़ते-पड़ते व्यक्त होती है। जैसे कि सकोरे में 99 बूंद अव्यक्त होती है, 100 वीं बूंद व्यक्त होती है। अतः 99 तक व्यञ्जनावग्रह कहलायेगा और 100 वां अर्थावग्रह में आयेगा। उसी प्रकार कहीं-कहीं कानों पर पड़ा हुआ शब्द आदि पदार्थ भी पहले तो अव्यक्त पदार्थ को व्यञ्जन और व्यक्त को अर्थ कहते है। व्यक्त के अवग्रहादि चारों होते है और अव्यक्त का अवग्रह ही होता है। व्यञ्जनावग्रह चक्षु और मन के द्वारा नहीं होता है। वह केवल स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र- इन चारों इन्द्रियों के द्वारा ही हुआ करता है। ___ अपनी-अपनी इन्द्रियों के द्वारा यथायोग्य विषयों का अव्यक्त रूप से जो आलोचनात्मक अवधारण ग्रहण होता है उसको अवग्रह कहते है। अवग्रह के द्वारा पदार्थ के एकदेश का ग्रहण कर लिया गया है। जैसे कि - 'यह मनुष्य है' इत्यादि, इस ज्ञान के बाद उस पदार्थ को विशेष रूप से जानने के लिए जब यह शंका हुआ करती है, कि 'यह मनुष्य तो हैं' परन्तु दाक्षिणात्य है, अथवा औदीच्य है ? तब उस शंका को दूर करने के लिए उसके वस्त्र आदि की तरफ डालने से यह ज्ञान होता है कि दाक्षिणात्य होना चाहिए, इसी को ईहा कहते है। जब उस मनुष्य के समीप आ जाने पर बातचीत सुनने से यह दृढ निश्चय होता है कि यह दाक्षिणात्य ही है, तब उसको अपाय कहते है। तथा उसी ज्ञान में ऐसे संस्कार का हो जाना कि जिसके निमित्त से वह अधिककाल तक ठहर सके, उस संस्कृत ज्ञान को धारणा कहते है। इसके होने से ही कालान्तर में जाने हुए पदार्थों का स्मरण होता है। धारणा में तीन भेद है - अविच्युति, वासना और स्मृति / अवग्रह आदि के द्वारा निश्चित किये गये उसी अर्थ के विषय में उपयोगवान रहना उससे चलित न होना यही अविच्युति है, और अविच्युति से उत्पन्न होनेवाले संस्कार विशेष वासना है तथा इस वासना के सामर्थ्य से भविष्य में भूतपूर्व अनुभव विषयक 'यह वही है' ऐसा ज्ञान होना स्मृति है। ___अर्थावग्रह, ईहा, अपाय और धारणा - ये पाँचों इन्द्रिय और मन छः द्वारा होता है। अतः 4 x 6 = 24. व्यंजनावग्रह के चार भेद इस तरह मतिज्ञान के 28 भेद होते है। अवग्रह आदि ज्ञानरूप क्रियाएँ है। अतः उनका कर्म भी अवश्य होता है। वे इस प्रकार है - . (1) बहु (2) अबहु (3) बहुविध (4) अबहुविध (5) क्षिप्र (6) अक्षिप्र (7) निश्रित (8) अनिश्रित (9) उक्त (10) अनुक्त (11) ध्रुव (12) अध्रुव। बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम्। बहु आदि का विशेष स्पष्टीकरण आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने तत्त्वार्थ हारिभद्रीय वृत्ति' में किया है। वह [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIN VIIINA तृतीय अध्याय | 212 ]