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________________ इस ज्ञानवाला जीव विधि विधान में परम आदरवाला होता है। जैसे कि दान के सम्बन्ध में पूर्व विधि, उत्कृष्ट दान, दातां के पांच भूषण, सुपात्र को दान अत्यंत आदर पूर्वक देने के लिए भावनाज्ञानवाला प्रवृत्त होता है। यह ज्ञान अमृत के समान है। जिससे क्षुधा-तृषा एवं मृत्यु तीनों का निवारण हो जाता है।३७ ___इन तीनों ज्ञान का स्वरूप धर्मबिन्दुः८, उपदेशपद२९, देशनाद्वात्रिंशिका तथा अध्यात्मउपनिषद् में भी मिलता है। अवधिज्ञान - द्रव्यइन्द्रिय और द्रव्यमन के बिना केवल आत्मा से रूपी पुद्गल द्रव्यों को जानना।२ द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की मर्यादा को लेकर इन्द्रियों और मन की अपेक्षा रहित जो आत्मा द्वारा ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है / 43 आचार्य श्री हरिभद्रसूरि उपर्युक्त व्याख्या को विशेष रूप से स्पष्ट करते हुए लिखते है कि - “अवधीयतेऽनेनेत्यवधिः - ‘अव' पूर्व 'धि' इन दोनों शब्दों से 'अवधि' पद बनता है। अव' शब्द अनेकार्थवाची है। इसी से ज्ञान के द्वारा ‘अव' यानि नीचे-नीचे विस्तार से रूपी वस्तु ‘धी' अर्थात् जानता है, वह अवधि अथवा 'अव' यानि मर्यादा वाचक लेने पर इतने क्षेत्र में इतने द्रव्य, इतने काल तक ही वह जानता है, देखता है। अथवा उस कर्म के आवरणीय कर्मों का क्षयोपशम होने पर उस ज्ञान के बल से मर्यादा में रहे हुए साक्षात् रूपी द्रव्यों को देखता है, उसे अवधिज्ञान कहते है। तात्पर्य यही है कि जिस आत्मा को जितना अवधिज्ञान होता है, वह उस अवधि अर्थात् मर्यादा में रहे हुए रूपी पदार्थों को देखता है। इसमें वह सभी को समानरूप से नहीं होता जिसको जितना क्षयोपशम होता है, उतना ही जानता है। कोई मनुष्य लोक में अमुक भाग ही देखता है, कोई देव और नरक को भी देखता है। लेकिन देवों को यह भव प्रत्यय होता है, भव प्रत्यय होने पर भी सभी देव समान नहीं देखते है। जितना जितना स्थान ऊँचा होगा उतना ज्यादा देखेंगे। जैसे दूसरे से तीसरे, तीसरे से चौथा वाला अधिक देखता है, अपने से नीचे का तो देखता ही है। लेकिन ऊर्ध्वभाग में अपने ध्वजा तक ही देख सकता है। ' मनःपर्यवज्ञान - द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्य मन के निमित्त बिना ही केवल आत्मा से रूपी द्रव्य मन में परिणत पुद्गल द्रव्य को देखता है। वह मनः पर्याय ज्ञान है।५ मनः पर्यायावरणीय कर्मों के क्षयोपशम की अत्यंत आवश्यकता है इस की प्राप्ति में, इस ज्ञानवाला जीवात्मा अड्डी द्वीप में स्थित संज्ञी मनुष्यों के मानसिक भावों को जान सकता है। यह ज्ञान पाँच महाव्रत, अप्रमत्त अवस्था वाले को ही प्राप्त हो सकता है। इसमें बाह्याचार की अपेक्षा आभ्यंतर शुद्धि विशेषरूप से आवश्यक होती है।४६ आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने उपरोक्त कथन तो मनः पर्यायज्ञान के विषय में कहा ही है। लेकिन इसके साथ कुछ विशेषता और नन्दी हारिभद्रीयवृत्ति में लिखी है - वह इस प्रकार - ‘परि' अर्थात् चारों ओर से 'अव' अर्थात् गति, गमन, वेदन अर्थात् चारों प्रकार से जानना। लेकिन किसको जानना ? तो मनोद्रव्य को चारों ओर | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII TA तृतीय अध्याय | 209 ]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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