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________________ उत्पन्न ज्ञान अवश्य टिकता है। तीसरी इसकी विशेषता यह है कि वह श्रुतज्ञान चिंताज्ञान का कारण है अतः पदार्थज्ञान से उत्पन्न असंगति दूर करने में श्रुतज्ञान परायण है और वह असंगति तब ही दूर हो सकती है जब कि वह श्रुतज्ञान वाला व्यक्ति दुराग्रह-कदाग्रह से सर्वथा मुक्त हो। और वह कदाग्रह से मुक्त नहीं होगा तो असंगति दूर नहीं हो सकती जिससे भविष्य में चिंताज्ञान भी प्रगट नहीं हो सकता। ___ इससे आचार्य श्री हरिभद्रसूरिने यह सूचित किया है कि ज्ञान के विषय में सांप्रदायिक आग्रह नहीं होना चाहिये। क्योंकि वह ज्ञान चिंताज्ञान एवं भावनाज्ञान प्रगट नहीं करवा सकता। आचार्यश्रीने स्वयं ने कहीं पर आग्रह, कदाग्रह का पक्ष नहीं किया है। उन्होंने साहित्य जगत में सत्यता को सचोट रूप में संदर्शित की है। इसीसे वे एक समदर्शी आचार्य' के रूप में माननीय बन गये। इसी भावना से प्रेरित बनकर व्याख्यात पण्डित सुखलालजी संघवी डी लिट्.' ने 'समदर्शी आचार्य हरिभद्र' शीर्षक को लेकर बम्बई यूनिवर्सिटी सञ्चालित ठक्कर वसनजी माधवजी व्याख्यानमाला में पांच व्याख्यान दिये। जिनको सुनकर सभी गद्गद् हो गये। अतः चिंताज्ञान और भावनाज्ञान को प्राप्त करना ही है तो श्रुतज्ञान को कदाग्रहरूपी कर्दम से कलंकित नहीं करना चाहिये। यह ज्ञान पानी के समान होता है। जो प्यास को बुझाता है लेकिन क्षुधा और मृत्यु से विराम नहीं होता है। चिंताज्ञान जो ज्ञान महावाक्यार्थ से उत्पन्न होता है / अर्थात् शब्द द्वारा प्रदर्शित और शब्द द्वारा अप्रदर्शित इस प्रकार सभी धर्मों को वस्तु में सिद्ध करके सर्वधर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन अनेकान्तवाद करता है उसी का विशिष्ट निरूपण महावाक्यार्थ कहलाता है। उसीसे चिन्ताज्ञान उत्पन्न होता है जो अत्यंत सूक्ष्म सुंदर युक्तियों के चिन्तन से संयुक्त होता है तथा पानी में तेल की बिन्दु की भांति विस्तारता को प्राप्त होता है। जिस प्रकार तेल का बिन्दु पानी में फैलता जाता है उसी प्रकार चिंताज्ञान भी अनेक शास्त्र प्रमाण - नय आदि के द्वारा बढता जाता है और सर्वव्यापी बना हुआ चिन्ताज्ञान भावनाज्ञान को लाता है। दूध के समान है। इससे क्षुधा और तृषा का शमन होता है। लेकिन मृत्यु का विराम नहीं होता है। भावनाज्ञान - विश्व में तीन प्रकार के पदार्थ होते है। हेय, ज्ञेय और उपादेय। हेय और उपादेय विषय का यथार्थ ज्ञान तो प्रत्येक सम्यक्त्वी को मिथ्यात्व के क्षयोपम, दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा आदि के प्रभाव से स्वतः ही हो जाता है। आप्त पुरुषों के उपदेश के बिना भी वे विषय-कषाय को अंतर से हेय-छोडने योग्य और त्याग - तितिक्षा ब्रह्मचर्य आदि को अंतर से उपादेय - ग्रहण करने योग्य मानते है। परन्तु ज्ञेय पदार्थ के विषय में ज्ञानावरण के उदय से प्रायः विपर्यास-संशय आदि होना संभव है, कारण कि ज्ञेय पदार्थ छद्मस्थ के लिए संशय रहित, अविपर्यस्त स्वसंवेदन का स्वतः विषय नहीं है। जिस प्रकार ‘आलू, निगोद आदि में अनंत जीव है, अभव्य जीव अनंत है, अनादि निगोद में जाति भव्य अनंत होते हैं" इन सभी ज्ञेय पदार्थों में छद्मस्थ की बुद्धि मार खा जाती है। अथवा इसकी बुद्धि से परे होता है, अतः सभी ज्ञेय पदार्थों को स्वीकारने में सर्वज्ञ की आज्ञा ही प्रधान है, आज्ञा ही परम धर्म है ऐसा तात्पर्य विषयक जो ज्ञान होता है वह भावनाज्ञान कहलाता है। . | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII IMINA तृतीय अध्याय | 208 ]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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