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________________ समदर्शी - आचार्य हरिभद भारत की पुरातनी, पुनीता भाषाओं के भव्य समाराधक, सक्षम, श्रुतधर, समदर्शी, आचार्य हरिभद्र थे। इनका स्वोपज्ञ साहित्य, विपुल-विरल रहा है। समय-समय पर संस्कृत-प्राकृत भाषा की प्रांजलता को श्रमण संस्कृत साहित्य की धरोहर सिद्ध करने में, सिद्धहस्त लेखक के रूप में अवतरित हुए। समदर्शी आचार्य हरिभद्र का वाङ्य दार्शनिकता का दिव्यावदान है। प्राग्-ऐतिहासिकता की पृष्ठभूमि रहा है। वैदिक संस्कृति की छाया से इनकी देववाणी दर्शनीया एवं चेतोहरा रही है। वैदिक काल की अनुभूतियों को आविष्कृत करते हुए, विप्रत्व के वैदुष्य में विपुरव नहीं रह सके। वैदिक बौद्ध संस्कृति के प्रखर विज्ञान को, शास्त्रवार्ता समुच्चय में समुचित समुल्लिखित करने का श्रेयस्कर सौभाग्य अर्जित करने का अधिकार हरिभद्र का हृदयंगम रहा है। धर्मसंग्रहणी में जैन दर्शन का वास्तविक विशद् रूप व्याख्यायित करने का वैदुष्य निराला मिलता है। बौद्ध ग्रन्थ पर टीका लिखने का अदम्य साहस हरिभद्र ने दर्शितकर, समदर्शी स्वरूप को श्रद्धेय सिद्ध कर दिया। भवविरही बनने का संकल्प समुद्घोषित करनेवाले हरिभद्र का जीवन वीतरागविहित व्यक्तित्व का प्रतीक था। वीततृष्णासाधित चारित्र का साकार स्वरूप था। अनासक्तयोग के अत्वार्यत्व का उदाहरण था। याकिनी महत्तरा के धर्मपुत्र होने की प्रशस्ति को प्रत्येक ग्रन्थ की पूर्णाहुति में प्रस्तुत करके हरिभद्र ने आर्याओं का श्रद्धास्पदेय संस्मरण सजीव रखा। समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान जैसे ग्रन्थों को गुन्फित कर, जन्म जन्मान्तरीय संस्कारों की छवि को दृश्य-दर्शित करने में वे दक्ष रहे हैं। अद्यावधि; ऐसे इस प्रकार के ग्रन्थकार रूप में कोई कोविद नहीं जन्मा; जिसने 1444 ग्रन्थों की रचना की हो। धन्य है, राजस्थान की चित्तौड़ भूमि, जिसने हरिभद्र जैसे विद्याधर, वरेण्य सपूत को जन्म दिया। उन्हीं के दिव्य दार्शनिक पक्ष को, शोध प्रबन्ध स्वरूप देने में;
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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