________________ 7. दर्शन में समन्वयवाद को महत्त्व दिया / जैनाचार्य होते हुए भी उन्होंने जैन-दर्शन को आस्था या श्रद्धा के आधार पर महत्त्व नहीं दिया। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं - पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष कपिलादिषु / युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यं परिग्रहः // ___अर्थात् महावीर से मेरा कोई पक्षपात नहीं है और कपिल आदि से कोई द्वेष नहीं है अपितु जिनके विचार तर्कयुक्त है उनको ही ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार के विचार हरिभद्र जैसा क्रान्तिकारी आचार्य ही दे सकता है। यह एक आह्वान था सभी दार्शनिकों से कि वे सभी दार्शनिक विचारों का स्वागत करे उन्हें तर्क की कसौटि पर कसे और जो खरा उतरे उसे स्वीकार करे। ऐसे महामनीषी आचार्य हरिभद्र के 'दार्शनिक वैशिष्ट्य' पर साध्वीजी अनेकान्तलताश्री ने गहन शोध किया है। उन्होंने आचार्यश्री के दर्शनरूपी वारिधि में निमज्जित होकर अनेक महार्ध मणिकाओं को ढूंढ निकाला है जिसका दर्शन-जगत में स्वागत होना स्वाभाविक है। साध्वीश्री ने लगभग दो वर्षों में श्रमनिष्ठा और आत्मनिष्ठा से इस शोध-कार्य को सम्पन्न कर डॉ. की उपाधि हासिल की है। उन्होंने अपने कार्य में आचार्य हरिभद्र के मूलग्रंथो का तो रसास्वादन किया ही साथ ही साथ आगमों में उसके आधार भी खोजने की कोशिश की। इस दौरान उन्होंने प्रायः सभी आगमों का भी अध्ययन किया। आचार्य हरिभद्र के मूलग्रन्थों के साथ उन पर लिखे गये व्याख्या ग्रन्थों का भी पारायण किया। अध्ययन और शोध के बाद जो नवनीत निर्मल हुआ उसे आचार्य हरिभद्र के दार्शनिक वैशिष्ट्य के रूप में प्रस्तुत किया है। यह शोध पुस्तकाकार रूप जन-सन्मुख प्रस्तुत कर अपनी उपादेयता सिद्ध करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। चूँकि मेरे निर्देशन में इस कार्य की पूर्णाहूति हुई। अतः मेरी प्रसन्नता अवक्तव्य है। इस अनूठे एवं उपयोगी कार्य के लिए साध्वी अनेकान्तलताश्री को बधाई देता हूं और भावी जीवन के प्रति मंगल भावना व्यक्त करता हूं। डॉ. आनंद प्रकाश त्रिपाठी उपनिदेशक दूरस्थ शिक्षा निदेशालय जैन विश्व भारती विश्व विद्यालय लाडनूं - 341 306. नागौर - राजस्थान AR