________________ ARRENTREASSITE हृदयंग नहीं कर सके / अत: त्वरित राजकीय पालकी के पदोन्नत भाव से विरक्त होकर विनय साध्य विद्या हैं इस विनिश्चय को लेकर आर्या की शरण स्वीकार की और श्रमण वाङ्मय के समाराधना में महाश्रमण बने। इस महापरिवर्तन में आचार्य जिनभट्टसूरि के अन्तेवासी होकर याकिनी महत्तरा के सूनू बन शास्त्रों के पारगामी पारदर्शी परमपुरुष हो गये। उन्होंने हंस परमहंस को अपने अन्तेवासी बनाये / वे दोनों शास्त्रों के ज्ञाता बने, लेकिन फिर भी उनकी इच्छा बौद्धदर्शन का भी ज्ञान प्राप्त करने की थी / अतः गुर्वाज्ञा से प्रस्थान किया / बौद्ध भिक्षु बनकर अध्ययन करने लगे फिर भी अज्ञात नहीं रह सके। अत: बौद्धाचार्य ने छद्मस्थ वेश में बौद्ध भिक्षुओं को जानकर निर्ममत्व निर्दयत्व से उन्हें निष्प्राण करवा दिये / यह ज्ञात कर हरिभद्र क्षणभर के लिए हतप्रभ बन गये और उन्होंने प्रतिशोध का परम प्राणबल उजागर किया और 1444 बौद्धों को तप्त तेल कडाह में मृत्यु के मुख में पहुँचाने का संकल्प किया। लेकिन याकिनी महत्तरा ने अपने महोपदेश से उनके अन्तर्मानस को अहिंसा से आद्रित बनाया और सदा के लिए वैर-विपाक की वृतियों को विद्यामय बना दी। हरिभद्र के हृदय को निर्वैर बनने हेतु तथा अनर्थ को रोकने के लिए आचार्य ने हरिभद्र के पास तीन प्राकृत गाथायें लिख भेजी। जिसमें गुणसेन तथा अग्निशर्मा के प्रथमभव से समरादित्य केवली तथा गुणसेन नाम के नवमे भव तक के नामों का उल्लेख था और अन्त में लिख था “एकस्स तओ मोक्खो वीअस्स अणंत संसारो' : इन गाथाओं ने आचार्य के क्रोधतप्त हृदय पर शीतल जलं की मूसलाधार वर्षा का काम किया। उनका हृदय शान्त हो गया। उन्होंने बौद्धों को प्राणदान दिया और स्वयं अपने गुरुदेव के पास जाकर उनके चरणों में सिर रख कर अपने क्रोध के लिए प्रायश्चित की मांग की तथा अपनी ओर से आत्म विशुद्धि के लिए 1444 ग्रन्थों की रचना करने की भीष्म प्रतिज्ञा की जिसके परिपालन में पहली फलश्रुति "समराइच्चकहा” की रचना हुई। ग्रन्थ रचना में मतभेद : मुनिवर रत्नसूरि ने “अममस्वामि चरित्र में इस प्रकार इनकी स्तुति कर 1440 ग्रन्थों के रचयिता बताये हैं। स्तौमि श्री हरिभद्रं तं येनहि द्वी महतरा। चतुर्दश प्रकरण शत्या गोप्यत मातृवत् // 99 // "प्रभावक चरित' के कर्ता प्रभाचन्दसूरि आदि ने आचार्य हरिभद्र को 1400 ग्रन्थों का कर्ता कहा। N ALITINMEHTAENIM