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________________ शास्त्रकार भगवन्तों ने कहा है कि श्रमणो को संयम जीवन के अन्दर अनेक प्रकार के योग साधने होते है लेकिन स्वाध्याय एक ऐसा योग है जिसमें तल्लीन होकर ही मन को स्थिर बनाया जा सकता है। शुभ ध्यान में रहा जा सकता है एवं श्रुतगंगा में अवगाहन किया जा सकता है। जिनागमों का अध्ययन करके ही हम हमारे पूर्वजों की धर्म धरोहर को अविच्छिन्न रूप से, अखंड रूप से, अक्षय रख कर जिन शासन की रक्षा के आंशिक भागीदार हो सकते है। पूज्य साध्वीजी भगवंत ने “हा अणाहा कह हुतो जइ न तो जिणागमो" - हरिभद्र सूरिजी की इस पंक्ति को आत्मसात् कर जीवन को अध्ययन रत बना दिया। "मुझे जिनशासन मिला है तो इसके परमार्थ एवं सत्यार्थ को जन-जन तक पहुँचाना है।" इस उद्देश्य को ध्यान में रखा, तभी हरिभद्र सूरि का विशाल साहित्य इनके दृष्टिपथ में आया और शोध प्रबन्ध का विषय चुना गया। 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि" श्रेष्ठ कार्य में अनेक विघ्न आते है। दक्षिण भारत का विहार, पुस्तकों की अनुपलब्धि, कठिन ग्रन्थ, पढाने वाले पण्डितों का अभाव, फिर भी 'उत्साहो प्रथम मुहूर्त"-इस कहावत को चरितार्थ कर एवं आपश्री की ज्ञान के प्रति अत्यंत निष्ठा होने के कारण इधर-उधर-पाटण-कोबा-आहोर जहाँ से जो पुस्तकें उपलब्ध थी मंगवाइ / इसके उपरांत भी चातुर्मास में व्याख्यान की जवाबदारी, अनेक शासन प्रभावना के कार्यक्रम होने से समय का अभाव रहता था। स्वयं का अध्ययन करना, गुरु बहिनों को पढाना तो भी “समयं गोयम मा पमायए'' पलभर का समय भी बरबाद किये बिना अपने लेखन-वांचन-अध्ययन में मशगुल बन जाते थे। हरिभद्र सूरि के ग्रन्थ संस्कृत और प्राकृत भाषा में है। किसी-किसी ग्रन्थ के तो भाषान्तर भी उपलब्ध नहीं है फिर भी सभी ग्रन्थों का इन्होंने सांगोपांग अध्ययन किया है। पी.एच.डी. तो मात्र उपाधि है लेकिन जैन शास्त्रों को आत्मसात् करना ही आपका मुख्य लक्ष्य था। "भक्ति-विभक्ति" पहले वैयावच्च फिर अध्ययन - इस बात को दिल में धारण कर गुरु मैया की सेवा में हर पल, हर क्षण तैयार रहते है। एक भी काम में विलम्ब नहीं। जिस काम के लिए बोले 'तहत्ति' के सिवाय इनके मुंह से दूसरी कोई दलिल निकलती ही नहीं है। कभी-कभी तो अध्ययन में इतने मशगुल बन जाते थे कि गोचरी-पानी भी याद नहीं आता था / निद्रा, प्रमाद, वार्तालाप सभी को एक तरफ रखकर, जो कठोर परिश्रम किया उसका सुन्दर फल स्वरूप यह परिणाम आया है। वास्तव में आपश्री ने जन्म लेकर माता-पिता को धन्य बनाया है। दीक्षा लेकर गुरु को धन्य बनाया एवं अब संयम का सुविशुद्ध पालन कर स्वयं धन्य बन रहे है। इनकी भावना हमेशा एक ही रहती है कि "सभी जीवों को जिन शासन रूप अमृत पान करवाउं" धन्य है ऐसी भावना / ___“संयम पालन में दृढता एवं अध्ययन-अध्यापन में तल्लीनता" यही आपश्री के जीवन का मूल मन्त्र रहा है। आपश्री की ज्ञान गंगोत्री हमेशा दीर्घ, दीर्घतर बने एवं जिन शासन में चार चांद लगाए यही मन की मनीषा, अंतर की अभिलाषा, हृदय की झंखना.... हमें भी ऐसी शक्ति एवं आशीष दे, जिससे हमें भी श्रुतगंगा में स्नान कर, जीवन को समुज्ज्वल बना सके। इन्हीं आकांक्षाओं के साथ....... शासनलताश्री, यशोलताश्री, कोविदलताश्री, अतिशयलताश्री, कालण्यलताश्री, समर्पणलताश्री, वीतरागलताश्री, श्रेयसलताश्री
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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