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________________ * 2. पू. आ. श्री भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. व्याख्यानात्मक शैली में भाषान्तर। 3. पू. युगभूषण विजयजी म.सा.। 4. पू. गणिवर्य मुक्तिदर्शन विजयजी म. द्वारा लिखित 'आठ दृष्टि ना अजवाला'। 5. श्री राजशेखर विजयजी म.सा. का भावानुवादवाला विवेचन। 6. पंडितजी श्री डॉ. भगवानदास मनसुखलालजी का किया हुआ विवेचन। 7. पंडितजी धीरजलाल डाह्यालाल कृत गुजराती भाषान्तर। इस प्रकार इस ग्रन्थ पर भाषान्तर लिखकर ग्रन्थ की यशोगाथा युग-युगान्तों तक प्रसारित की है। इससे इस ग्रन्थ की महत्ता अत्यधिक अध्ययन-पिपासुओं में बढ़ गई है। 13. योगबिन्दु - योगमार्ग समर्थक, प्रज्ञावान्, आचार्यश्री हरिभद्रसूरि अपने योगबिन्दु ग्रन्थ में ही संसार की अनादिता-अनंतता का चित्रण करते हुए कहते है कि हमारे सामने जब संसार अनादि अनंत है ऐसा स्वरूप चित्रित होता है तब सहसा प्रश्न उठ खडा होता है कि संसार अनादि क्यों ? इसका सुंदर प्रत्युत्तर देते हुए कहते है कि संसार की उत्पत्ति की प्रारंभिक भूमिका नहीं होने से वह अनादि है तथा प्रवाह की अपेक्षा से कभी भी इसका अंत नहीं होने से अनंत है। अर्थात् आदि जब अपना अंत नहीं चाहता तब वह अनंत बनकर रहता है। यह अविरह बनकर अपने अस्तित्व को सदा के लिए अचल रखता है / कितने ही इससे बिछुड-बिछुड कर चले गये पर यह स्वयं अविरही रहा। अनादित्व अविरहत्व को निरूपित करने में विशेष रहा है / इस विशेषता को . इसने कभी खोई नहीं, विशेषता का विशेष भण्डार बनकर यह बैठा है। .. यह अनेक गतियों से आने वाले सुखी-दुःखी सभी जीवों को समाश्रय देता है। संसार का सर्वोच्च धर्म समाश्रय है जो हमारे जैसों के लिए अत्यंत उपादेय है। आश्रय देनेवाले धर्म को ही हमने अनदि कहा है। ऐसे अनादि संसार के आङ्गन में जीवों को गमनागमन करते अनंत पुद्गल परावर्त बीत गये है। जन्म-जन्म से, युग-युग से यह जीव संसार की यात्रा में संसार के संत्रासों को भोगता हुआ श्रमित नहीं हुआ हैं। राग-द्वेष, मिथ्यात्व, अज्ञान विषयाशक्ति आदि मलिनता से जीवन में गति-मति और स्थिति बढती गई। अर्थात् मलीनभावों से भवभ्रमण की गति, दुष्टचिंतन से दुराशयों की मति तथा मोहनीयादि कर्मरूप स्थिति उत्तरोत्तर वृद्धिभाव को प्राप्त होती है। जिससे अपने आपको सुधारने में असमर्थ हो जाता है। वह दीर्घयात्रा का राही बन जाता है। वह जब भवभ्रमण की थकावट का अहसास नहीं करता, मलिनता के भावों से विमुख नहीं होता तब अभिनिवेश अर्थात् अतत्त्व में तत्त्वबुद्धि रूप हठाग्रह अपना राज्य स्थापित कर देता है, अपने रंग से उसको रंजित कर देता है। जिससे वह किसी संत महापुरुषों के परमार्थ उपदेश को मानस मेधा में ग्रहण करने को तैयार नहीं होता है। ऐसे मोह से मोहित बने हुए अज्ञानी जीवों का भी मुझे उद्धार करना है, क्योंकि योग आत्म जीवन का रक्षक कवच है, यह कवच इतना सुदृढ है कि तप से भी बढकर चढकर चरितार्थ हुआ है, योग कवच ने संसार [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व XII VA प्रथम अध्याय | 71 ]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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