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________________ समता का विनाश करने में कुतर्क सभी जगह अग्रसर है। कभी-कभी आवेशवान् बनकर व्यक्ति अपनी आत्म समर्थता का अहित कर बैठता है। उसका सम्पूर्ण समत्व योग शंकास्पद होकर संकीर्ण बनता जाता है। श्रद्धा के भङ्ग करने में कुतर्क एक कदाग्रही बन जाते है। आचार्य सिद्धसेनसूरिने ‘सन्मतितर्क' में धर्मवाद को श्रद्धागम्य अहेतुवाद कहा है। श्रद्धागुण को लम्बे समय तक जीवन में अस्थिर रखने में कुतर्क बहुत बड़ा भाग निभाते है। कुतर्क अभिमान को उदित कर अपने आत्मश्रद्धा मार्ग में विप्लव मचा देता है। अतः व्यक्ति अत्यधिक अभिमान वाला बनकर महाकुतर्की हो जाता है। ज्ञान गुण गंभीरता का त्याग कर अत्यधिक विकृत, विनयहीन बन जाता है। इसलिए हरिभद्रसूरिने कुतर्कों से रहित आत्मयोग को स्वीकारा है। . ____ मुक्ति की बातें करनेवाले कुतर्कों की युक्तियों से सुरक्षित रहे। उनको अपने आत्म सम्पर्क में आने का स्थान न दे। क्योंकि कुतर्क मुक्त बनाना जानता है। लेकिन साथ में सदा संकुचित संदेहशील रखने में अग्रसर रहता है। इसलिए श्रुतज्ञान में, जीवनशील में और एकाग्रता में कुतर्कों को स्थान नहीं दिया है। साथ में शास्त्रज्ञान में भी कुतर्कों को नहीं स्वीकारा / इस ग्रन्थ में इच्छायोग, शास्त्रयोग, सामर्थ्ययोग, योगावंचक, क्रियावंचक तथा फलावंचक, गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी और निष्पन्नयोगी, योग के बीज, योग के अधिकारी, अनधिकारी, भवाभिनंदी जीव, दीक्षा के अधिकारी, एकान्त क्षणिकवाद और एकान्त नित्यवाद का मार्मिक भाषा में खंडन तथा आठ दृष्टियों में 1 से 4 दृष्टि चरमावर्त काल में मिथ्यात्व गुणस्थानक में आती है तथा 5 से ८.दृष्टि उत्तरोत्तर गुणस्थानक में प्राप्त होती है। अन्य दर्शनकारों की योग विषयक मान्यता, अतीन्द्रिय पदार्थ श्रद्धागम्य है। सर्वज्ञवाद का स्वरूप, सर्वज्ञ सभी मूलतः एक है नाममात्र से भेद है / कुतर्क से होने वाली हानि, सदनुष्ठान आदि विषयों को अत्यंत सुंदर रूप से समझाये गये है। ____ योगदृष्टि असंख्य होने के कारण महर्षियों ने उन्हें आठ विभागों में विभक्त की है। योगदृष्टि के समान आत्मा के गुण भी अनंत है। लेकिन मुख्य आठ रूप से आठ गुण की प्राप्ति और एक-एक दोष का त्याग बताया गया है। ___एक-एक दृष्टि के साथ आत्मा का ज्ञान गुण का विकास कैसे होता है वह भी उपमा के साथ बताते हुए आठ योग के अंग भी बताये है। इस प्रकार यह ग्रन्थ आत्मार्थी जीवों के लिए अत्यंत उपादेय बन गया है। इस ग्रन्थ के प्रणेता श्रुतसमर्थक आचार्य श्री हरिभद्रसूरि है तथा इस ग्रन्थ पर इनकी स्वोपज्ञ टीका है / इस ग्रन्थ के मूल श्लोक 228 है। इस ग्रन्थ पर अनेक मुनि भगवंतो ने टीका सहित गुजराती भाषान्तर किया है / जो निम्न है१. श्री देवविजयजी गणिवर (केशरसूरिश्वरजी म.सा.) | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII प्रथम अध्याय / 70
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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