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________________ जीवन के दैनिक कृत्यों में आचरण रूप से उपस्थित करने का प्रयास आचार्य श्री का असामान्य है। वे योग के प्रथम अङ्ग विनय पर विशेष लक्ष्य देते हुए उसको जीवन में आचरित करने का अधिकार देखना चाहते है। योग का साधक वही है जिसके जीवन में श्रद्धेयभाव से सदनुष्ठान करने की अभ्यास कला है। ___ बाह्याचार से योग लोकधर्म की व्यवस्था को विधिवत् व्यवस्थित रखने में आचार्य श्री ने प्राथमिकता दी है। “पढमस्स लोगधम्मे' लोकधर्म यह आपका प्रथम रहेगा और आपके जीवन की प्राथमिकता यही है कि दूसरों को पीड़ाओं से मुक्त करने हेतु योग संभाला है तो आप योगी है। . योगशतककार मोह विष विनाशक स्वाध्याय को अनुभव सिद्धयोग रूप से प्रथित करते हुए अपनी आत्म-योग योग्यता को प्रतिपादित करते है / अपना योग पुरुषार्थ परमार्थमय बनाने में आचार्य हरिभद्र ने दुष्कृत गर्दा को भी महत्त्वपूर्ण मान्यता दी है योगमार्ग में। भावनाश्रुतपाठ के पक्षकार बनकर आत्मप्रेक्षण को राग की बहुलता से, मोह की प्रबलता से, द्वेष की बहुलता से मुक्त करने का महोपाय योग में ग्रथित किया है। राग द्वेष और मोह ये सभी आत्म दूषण और जनित आत्मा में परिणमित होते हैं परन्तु योगमार्ग अप्रीति लक्षणवाले द्वेष से, अज्ञान लक्षणवाले मोह से आसक्तिलक्षणवाले राग से मुक्त रखने का महासन्देश देता रहा है। _ अनुभव से प्रवर्तित, प्रवाह से अपेक्षित यह जीवन कई बार अस्त-व्यस्त हो जाता और अनुपम योगमार्ग से वंचित होकर शुद्ध जीवन से रिक्त बना देता है / इसलिए वीतराग के वचन लक्षणों का आज्ञारूप से परिपालन करके अभिप्रेत योगमार्ग पर आरूढ़ हो जाना चाहिए। जिन्होंने योगासनों से काया का निरोध कर लिया है, वित्त को शुभाशयों में सर्वोत्तम बना दिया है वे ही योग-सिद्धान्त के परलोक साधक, पथिक होकर अपना आत्म-पाथेय निर्मल बना देते है स्थिरचित्तकारी भावों में, तत्त्वचिंतन विचारों में विरक्त को विशेष स्थान देते स्वयं अनुभव प्रधान योग मार्ग पर चलते रहते है। पुन: स्वयं अनुभव प्रधान योग मार्ग पर बहुमान पूर्वक भावित होकर परम कारूण्य भाव से, माध्यस्थ स्वभाव से, मैत्री * प्रमोद आदि गुणों की अभिवृद्धि करके योगमार्ग की सिद्धि सम्पन्न कर लेते है। इस ग्रन्थ में आत्म उन्नति का एक अलौकिक पथ प्रदर्शित किया, पत्थर के समान हृदय को भी पिघलाने का सामर्थ्य इसमें रहा हुआ हैं, क्योंकि समर्थ तर्कों से युक्तियाँ देकर अध्यात्मरस का स्त्रोत प्रवाहित किया है साथ संसार के प्रति खेद तथा मोक्ष के प्रति प्रेम के स्वरूप की भी पुष्टि की गई है। अन्यदर्शनकार महर्षि पतञ्जलि, भगवद् गोपेन्द्र आदि योगी महापुरुषों की योग विषयक दृष्टि-व्याख्या को आदर के साथ प्रस्तुत की है साथ अत्यन्त बहुमान वाचक शब्दोंको लिखकर जैसे महामति पतञ्जलि, भगवद् गोपेन्द्र उनके प्रति समादर सद्भाव प्रदर्शित किया। गुणवान् हमेशा गुणग्राही दृष्टि से गुण को ही ग्रहण करते है। जैनदर्शन के पारिभाषिक शब्दों का अन्यदर्शन के साथ मात्र नामभेद ही है ऐसा कहकर उन्होंने पक्षपात, | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII प्रथम अध्याय 67
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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