________________ तथा इस ग्रन्थ में यह भी स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है प्रत्येक अनुष्ठान तीर्थ-उन्नति का कारण है अतः विधि का ही उपदेश देना चाहिए तथा साथ ही गांभीर्यपूर्ण तीव्रभावों में अविधि का निषेध भी नितान्त रूप से करना चाहिए। अविधि पूर्वक करनेवाले अनेक होने पर भी तीर्थका उच्छेद हो सकता है और विधिपूर्वक एक ही आराधक का अनुष्ठान तीर्थ उन्नति का कारण बनता है।१११ योगविंशिका में मोह सागर को तैरने की एक सुन्दर पद्धति परिष्कृत की है। सदनुष्ठान हितकारी बतलाते हुए योग विधि के अङ्ग में संयुक्त किया है, योग एक ऐसा विषय है जिस पर युगों-युगों से आस्था रही है और व्यवस्था भी पुरातन काल से चली आ रही है। आचार्य हरिभद्र योगविद्या के महान् बनकर योग के अनुष्ठानों में प्रीति को और भक्तिभाव को प्रदर्शित करके सम्पूर्ण योगमय जीवन को संप्रतिष्ठित बनाते है और योग-विंशिका जैसे ग्रन्थ में योग-विद्या की महत्ता का प्रतिपादन कर अपनी योगानुशासन जीवन क्रमता का परिचय देते है योग को मोक्ष का योजक बनाते हए विशद्ध धर्म-व्यापार में मिश्रित कर दिया. यही उनकी योगशीलता सर्वमान्य बनी योगविंशिका ग्रंथ पर पं. श्री अभयशेखर विजयजी म.सा. का सटीक गुजराती भाषान्तर है। तथा पण्डितवर्य धीरजलाल डाह्यालाल मेहता का भी सटीक सुंदर सुबोधगम्य गुजराती भाषांतर है। इस ग्रन्थ पर संस्कृत टीका उपाध्याय यशोविजयजी म. की है। इस प्रकार इस ग्रन्थ का आकर्षण उत्तरोत्तर ज्ञान-पिपासु वर्ग में बढ़ रहा है। इससे भी इस ग्रन्थ की महत्ता, श्रेष्ठता सिद्ध हो जाती है। 11. योगशतक - इस जगत में अनादि काल से जीव योग मार्ग से च्युत बना हुआ संसार परिभ्रमण से परिपुष्ट बन गया है जिससे अनेक यातनाओं से पीडित घोर वेदनाओं से व्यथित हो रहा है उन सासांरिक पीडाओं से मुक्त होने के लिए अत्यंत आवश्यक है योग / जिससे जीवात्मा जन्म जन्मान्तरीय जन्म-जरा-मरण की भयंकर यातनाओं को दूर करने में प्रयत्नवान् बन सके तथा उनसे अपने आप को विच्युत कर अविच्युत सुख की प्राप्ति कर सके। इसी हेतु से श्रुतवान् योगमार्ग ज्ञाता आचार्य हरिभद्रसूरिने योगशतक ग्रन्थ की रचना की है। यह ग्रन्थ सम्यग्ज्ञान का असाधारण कारण होने से श्रेयः स्वरूप में स्वीकारा गया है / इस ग्रन्थ में आचार्यश्री ने योगविषयक अपनी अल्पबोधता का सम्मुलेख करते हुए कहते है कि वोच्छामि जोगलेसं, जोगज्झयणाणुसारेणं / / योगाध्ययन का अनुसरण ही उनके जीवन का विषय बना था। इसलिए अपने आराध्यदेव को "सुजोगसंदंसगं" कहकर श्रेष्ठ योग को संदर्शित करनेवाले परम परमात्मा महावीर को योगिनाथ संज्ञा से संबोधित करते है इससे उनका भगवान् महावीर के साथ श्रद्धेय सम्बन्ध स्पष्ट होता है अपने आत्मसंबंध को शीर्षस्थ सर्वोपरि बनाते हुए आचार्य हरिभद्र योगशतक के निर्माण विधि में योजित हो जाते है। आचार्य श्री व्यवहारनय और निश्चय नय से योग को एक सारगर्भित सत्यभूत निर्दिष्ट करते है / योग को | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII बप्रथम अध्याय | 661