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________________ * दार्शनिक परिभाषा का ज्ञान प्राप्त करने हेतु वर्तमान में अन्नंभट्ट रचित 'तर्कसंग्रह' विशेष प्रसिद्ध है जिसके ऊपर गोवर्धनपंडित ने 'न्यायबोधिनी' तथा चंद्रजसिंह ने पदकृत्य लिखा है लेकिन 'न्यायप्रवेशसूत्र' संक्षेप परिभाषाओं से युक्त है जबकि यह ग्रन्थ नैयायिक वैशेषिक पदार्थों प्रमाणों सहित है और अनुमान प्रमाण में ही पक्ष , सपक्ष आदि की व्याख्या दी है ! भुवनभानु सूरिजी लिखित 'न्यायभूमिका' भी न्याय में प्रवेश करने हेतु सरल भाषा में सुबोधकारी है। 6. न्यायवतारवृत्ति - इसका विवेचन भी नहीं मिल रहा है। 7. न्याय विनिश्चय - इसका विवेचन नहीं मिल रहा है। 8. ललित विस्तरा - विक्रम सं. ग्यारवी शताब्दी का यह प्रसंग है कि श्रीमाल की धरा से सिद्ध-पथ पर प्रस्थान करनेवाले पाण्डित्य के प्रकर्ष से प्रतिष्ठित सिद्धर्षि गणिवर्य बने / गुरुदेव श्री गगर्षि के शास्त्रों के अवबोध से बोधित करने पर भी बौद्धों के तत्त्व-परिज्ञान से चित्त की चंचलता प्राप्त कर कर रहे थे उनके तर्कों में वे अपने स्वयं के जैनत्व को सुस्थिर करने में असमर्थता का अनुभव कर रहे थे ऐसी परिस्थिति में अपने शिष्य को देखकर आ. गर्षि महत्तर ने विचार किया कि अब यह तर्कों से अपने आपको सुस्थिर नहीं कर सकता, क्योंकि खण्डनकारी बौद्धों के तर्कों से उसका चित्त विचलित हो जाता है अब तो उसे अनंत परमात्मा के वैशिष्ट्य से सुपरिचित करवाके ही सन्मार्ग पर आरूढ़ करना होगा, अत: गुरुदेवने उसको प्रज्ञावान् प्रौढ़ पूर्वाचार्यश्री हरिभद्रसूरि रचित ललित-विस्तरा वृत्ति' ग्रन्थ का वांचन करने दिया, बस फिर तो उसको पढ़ते ही उसका चित्त द्रवित हो उठा, उसके महामोह -विष को उतारने के लिए इस ग्रन्थ ने एक गारूड़ी मंत्र के समान अपना स्थान बना दिया। जैन तर्कों द्वारा तो मात्र उसका प्रासंगिक समाधान होता जबकि बौद्ध तर्कों द्वारा तो उसका चित्त-चपल हो जाता था अत: इस ग्रन्थ में वर्णित अनन्तदर्शी के अनन्त कल्याण एवं साधक तत्त्वमार्ग की सर्व श्रेष्ठता महत्ता एवं व्यापकता की तर्क पूर्णता प्राप्त होने पर ऐसा ज्योतिर्मय दर्शन उन्हें मिल गया कि कि पुन: अपने स्खलना की गुरुदेव श्री के चरणों में क्षमा प्रार्थना करते हुए उस परमात्म गुणों के प्रति समर्पित बन जाते है। * उसी समर्पणभावसे स्वच्छ एवं निर्मल बनी हुई बुद्धि के माध्यम से "उपमितिभव प्रपंच' कथा की रचना की इससे ज्ञात होता है कि यह ललितविस्तरा' ग्रन्थ कितना अलौकिक अद्भुत तत्त्वमार्ग का आध्यात्मिक ग्रंथ है / जो हमारे जैसे अबोध प्राणिओं के सुबोध केलिए भी सार्थक सिद्ध हो रहा है। अनंतज्ञानी तीर्थंकर भगवान् के स्याद्वाद एवं स्वपर अहिंसा प्रधान शासन में इन विषयों पर आगम एवं अनेक आचार्यों द्वारा विरचित शास्त्र ग्रन्थ है / इसमें ललित-विस्तरावृत्ति' एक विशिष्ट भक्तिमय उच्चकोटि का दार्शनिक ग्रन्थ है जिसके रचयिता प्रकाण्ड विद्वान् स्वपरागम मर्मज्ञ समन्वयवादी समर्थ तार्किक आ. हरिभद्रसूरि है। इनकी बहुमुखी प्रतिभा एवं सूक्ष्म निरीक्षण तत्त्व शक्ति इस ग्रन्थ में स्पष्ट दिखाई दे रही है। यह ग्रन्थ नित्य नियमित चैत्यवंदन स्वरूप भक्तिमय अनुष्ठान में उपयुक्त प्रणिपातसूत्र, दण्डकसूत्र, नामस्तव, श्रुतस्तव सिद्धस्तव इत्यादि विवेचित स्वरूप है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII TA प्रथम अध्याय | 59 ]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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