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________________ के माध्यम से जीवात्मा सत्यपथ अनुगामी, पुरोगामी बन सकता है अतः भारतीय संस्कृति में जैनाचार्यो ने एवं अन्यदर्शनकारों ने बुद्धि की कुण्ठिता को दूर करने एवं वस्तु के परमार्थ का प्रतिपादन करने हेतु अनेकन्याय ग्रन्थों का सर्जन किया। बौद्ध परंपरा में प्राचीन प्रखर प्रज्ञावान् आचार्य दिङ्नाग का स्थान सभी उत्तरवर्ती दार्शनिक विद्वानों ने महत्त्वपूर्ण स्वीकारा है। क्योंकि उन्होंने 'न्यायप्रवेशसूत्र' ग्रन्थ की रचनाकर आ. हरिभद्र जैसे को वृत्ति लिखने के लिए वशीभूत कर दिया। न्यायप्रवेश ग्रन्थ उस समय अत्यंत प्रसिद्धि को प्राप्त हो गया था अतः इस सूत्र की महत्ता को समझकर अलग-अलग दो ग्रुपवाले विद्वान अपनी-अपनी विद्यालय में ले गये जिसमें प्रथम Tibetan वाले तथा द्वितीय Chinese वाले ले गये, और इसी कारण यही ग्रन्थ दो नामो से हमारे समक्ष आया जिसमें Tivetan के पुस्तक में से 'न्यायद्वार' एवं Chenese के पुस्तक में से 'न्यायप्रवेश' नाम मिला। जिसका प्रमाण हमें न्याय प्रवेश की अंग्रेजी भूमिका में मिलता है Pandit Vidhushekera equates न्यायद्वार with न्यायप्रवेश in the above extracts on the strenght of a note in Colophon of T2 (pp-28-29) that in a 'Chinese book it is seen as NYAYA PRAVESA' While in a Tibet it is now known as 'NYAAY-DVARA'.102 न्यायवेत्ताओं ने आचार्य हरिभद्र जैन आम्नाय के उच्चकोटि के बहुश्रुत विद्वान् है फिर भी उनके जीवन की गुणग्राहिता सराहनीय रही है दिङ्नाग की इस कृति पर अपना प्रमाण बोध प्रचुरता से प्रस्तुत कर आ. हरिभद्र सदा-सदा के लिए बौद्ध जगत में संस्मरणीय बनें यह उनके व्यक्तित्व का विद्यामय विशद व्यवहार रहा है कि वे गुणों के प्रति सदैव संग्राहक रहे है, उन्होंने कभी भी संप्रदाय द्वेष को स्वीकार नहीं किया, अपितु माध्यस्थभाव के मेधावी होकर न्यायप्रवेश की वृत्ति का शुभारंभ किया तथा उन बौद्धाचार्य को सत्प्रज्ञ शब्द से तथा स्वयं को असत्प्रज्ञ शब्द से प्रस्तुत कर उदारता प्रगट की है रचितामपि सत्प्रज्ञैर्विस्तरेण समासतः। असत्प्रज्ञोऽपि संक्षिप्तरुचिः सत्वानुकम्पा // 103 सत्प्रज्ञावानों ने तो विस्तार से ये ग्रन्थ रचे लेकिन संक्षिप्त रुचिवाला, असत्प्रज्ञ ऐसा मे संक्षेप से बालबुद्धि जीवों पर अनुकंपा की दृष्टि से 'न्यायप्रवेशवृत्ति' ग्रन्थ की रचना करता हूँ, अर्थात् जिससे मन्दबुद्धि वाले भी न्याय के पदार्थोंसे वंचित न रहे। “न्याय प्रवेशसूत्रकम्' ग्रन्थ में आचार्य दिङ्नाग ने साधन , पक्ष, हेतु, सपक्ष, विपक्ष के भेद, प्रभेद तथा उनकी सुचारु व्याख्या संप्रस्तुत की है साथ में ही पक्षाभास, हेत्वाभास तथा दृष्टांताभास का भी विस्तार से निरूपण मिलता है इसी से इस ग्रन्थ की उपादेयता जानकर आचार्य हरिभद्रने उस ग्रन्थ को विशेष आकर्षक बनाने हेतु न्यायप्रवेशवृत्ति लिखी है साथ में ही इस ग्रन्थ को विशिष्ट बनाने हेतु एवं स्व-पर कल्याण के लिए आ. शीलभद्र सूरि के शिष्य श्रीमद्धनेश्वर सूरि के शिष्य पण्डित पार्श्वदेव गणिने इसके ऊपर न्यायप्रवेशवृत्ति पञ्जिका लिखी, जिसका वैदुष्य विरल है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII प्रथम अध्याय 58
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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