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________________ लेश्या की कल्पना है, वह द्रव्य-लेश्या को लेकर है, उनमें भाव-लेश्या तो छहों ही सम्भव हो सकती है। वस्तुतः, यहां द्रव्य-लेश्या स्वभावगत विशेषता की सूचक है। भव्यत्व मार्गणा के अंतर्गत भव्य और अभव्य ऐसे दो प्रकार के जीवों का निर्देश है। जैन दर्शन में भव्य से तात्पर्य उन आत्माओं से है जो मोक्ष को प्राप्त करने में समर्थ हैं। इसके विपरीत अभव्य जीवों में मोक्ष को प्राप्त करने की क्षमता का अभाव होता है। गुणस्थानों की अपेक्षा से अभव्य जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है, जबकि भव्य जीवों में चौदह ही गुणस्थान सम्भव हैं। ___ भव्यत्व-मार्गणा के पश्चात् प्रस्तुत कृति में सम्यक्त्व-मार्गणा का निर्देश किया गया है। सम्यक्त्व-मार्गणा के अंतर्गत औपशमिक, वेदक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ऐसे चार प्रकार के सम्यक्त्व की चर्चा है। इसमें यह भी बताया गया है कि किस-किस गुणस्थान में किस प्रकार का सम्यक्त्व पाया जाता है। संज्ञी-मार्गणा के अंतर्गत संज्ञी और असंज्ञी- ऐसे दो प्रकार के जीवों का निर्देश किया गया है। जिनमें हेय, ज्ञेय और उपादेय का विवेक करने की सामर्थ्य होती है, उसे संज्ञी कहा जाता है। गुणस्थानों की अपेक्षा से यहां यह बताया है कि असंज्ञी जीवों में मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है, जबकि संज्ञी जीवों में सभी गुणस्थान सम्भव होते हैं। ___ आहार-मार्गणा के अंतर्गत जीवों के दो भेद किए गए हैं - (1) आहारक, (2) अनाहारक। इसमें यह भी बताया गया है कि पुनर्जन्म ग्रहण करने हेतु विग्रहगति से गमन करने वाले जीव, केवली-समुद्घात करते समय केवली तथा अयोगी केवली और सिद्ध ये अनाहारक होते हैं। शेष सभी आहारक होते हैं। इस प्रकार जीवसमास के इस प्रथम स्पदप्ररूपणा-द्वार में चौदह मार्गणाओं का चौदह गुणस्थानों से पारस्परिक सम्बंध स्पष्ट किया गया है। यद्यपि गम्भीरता से देखने पर यह लगता है कि जीवसमास उस प्रारम्भिक स्थिति का ग्रंथ है, जब मार्गणाओं और गुणस्थानों के सह-सम्बंध निर्धारित किए जा रहे थे। जीवसमास का दूसरा द्वार परिमाणद्वार है, इस द्वार में सर्वप्रथम परिमाण के द्रव्यपरिमाण, क्षेत्र-परिमाण, काल-परिमाण और भाव-परिमाण ये चार विभाग किए गए हैं। पुनः द्रव्य-परिमाण के अंतर्गत मान, उन्मान, अवमान, गनिम और प्रतिमान- ऐसे पांच विभाग किए गए हैं, जो विभिन्न प्रकार के द्रव्यों (वस्तुओं) के तौलमाप से सम्बंधित हैं, क्षेत्र-परिमाण के अंतर्गत अंगुल, वितस्ति, कुक्षी, धनुष, गाऊ, श्रेणी आदि क्षेत्र को 48
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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