________________ (7) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, (8) अपूर्वकरण गुणस्थान, (9) अनिवृत्तिबादर गुणस्थान, (10) सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान, (11) उपशान्तमोह गुणस्थान, (12) क्षीणमोह गुणस्थान, (13) सयोगीकेवली गुणस्थान और (14) अयोगीकेवली गुणस्थान। ___इन प्रारम्भिक निर्देशों के पश्चात् जीवसमास के प्रथम सत्पदप्ररूपणाद्वार में उपर्युक्त चौदह मार्गणाओं के संदर्भ में उनकी भेद-प्रभेदों की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि किस मार्गणा के किस भेद अथवा प्रभेद में कितने गुणस्थान उपलब्ध होते हैं। वस्तुतः, प्रथम सत्पदप्ररूपणा-द्वार चौदह मार्गणाओं और चौदह गुणस्थानों के पारस्परिक सह-सम्बंधों को स्पष्ट करता है। हमारी जानकारी में अचेल परम्परा में षट्खण्डागम और सचेल परम्परा में जीवसमास ही वे प्रथम ग्रंथ हैं, जो गुणस्थानों और मार्गणाओं के सहसम्बंध को स्पष्ट करते हैं। ज्ञातव्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रंथ नियमसार में जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान तीनों को स्वतंत्र सिद्धांतों के रूप में प्रतिस्थापित किया है। ऐसा लगता है कि आचार्य कुन्दकुन्द के समय में ये तीनों अवधारणाएं न केवल विकसित हो चुकी थीं, अपितु इनके पारस्परिक सम्बंध भी सुस्पष्ट किए जा चुके थे। यदि हम इस संदर्भ में जीवसमास की स्थिति का विचार करें तो हमें स्पष्ट लगता है कि जीवसमास के रचनाकाल तक ये अवधारणाएं अस्तित्व में तो आ चुकी थीं, किंतु इनका नामकरण संस्कार नहीं हुआ था। जीवसमास की गाथा छह में चौदह मार्गणाओं के नामों का निर्देश है, किंतु यह निर्देश नहीं है कि इन्हें मार्गणा कहा जाता है। इसी प्रकार गाथा आठ और नौ में चौदह गुणस्थानों के नामों का निर्देश है, किंतु वहां इन्हें गुणस्थान न कहकर जीवसमास कहा गया है। उसी काल के अन्य दो ग्रंथ समवायांग और षट्खण्डागम भी गुणस्थानों के लिए गुणस्थान शब्द का प्रयोग न कर क्रमशः जीवस्थान और जीवसमास शब्द का प्रयोग करते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ही प्रथम व्यक्ति हैं जो इन तीनों अवधारणाओं को स्पष्टतया अलग-अलग करते हैं। इसी आधार पर प्रो. ढाकी आदि कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि कुन्दकुन्द का काल छठी शताब्दी के पश्चात् ही मानना होगा, जब ये तीनों अवधारणाएं एक-दूसरे से पृथक्-पृथक् स्थापित हो चुकी थीं और इनमें से प्रत्येक के एक-दूसरे से पारस्परिक सम्बंध को भी सुनिश्चित रूप से निर्धारित कर दिया गया था। प्रस्तुत कृति में चौदह गुणस्थानों के नाम निर्देश के पश्चात् जीव के प्रकारों की चर्चा हुई है, उसमें सर्वप्रथम यह बताया गया है कि अयोगी केवली दो प्रकार के होते हैंसभव और अभव। अभव को ही सिद्ध कहा गया है। पुनः सांसारिक जीवों में उनके चार प्रकारों की चर्चा हुई है- (1) नारक, (2) तिर्यंच, (3) मनुष्य और (4) देवता।