________________ सम्यक्त्वादि का विरहकाल जीवसमास - सम्मत्त सत्तगं खलु वरियाविरई होइ चौद्दसगं / विरईए पनरसगं विरहिय कालो अहोरत्ता // 262 / / पंचसंग्रह - सम्मत्ते सत्त दिणा विरदाविरदे य चउदसा होति / विरदेसु य पण्णरसं विरहियकालो य बोहव्वो // 205 // .. दोनों गाथा का अर्थ समान है। मात्र शब्दों का अंतर है। विषयवस्तु जीवसमास की प्रारम्भिक गाथाओं में ही यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इस ग्रंथ में चार निक्षेपों, छह एवं आठ अनुयोगद्वारों और चौदह मार्गणाओं के आधार पर जीव के स्वरूप का एवं उसके आध्यात्मिक विकास की चौदह अवस्थाओं का अर्थात् चौदह गुणस्थानों का विवेचन किया गया है। सम्पूर्ण ग्रंथ 287 प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है और निम्न आठ द्वारों में विभक्त किया गया है- (1) सत्पदप्ररूपणा, (2) द्रव्य-परिमाण, (3) क्षेत्र, (4) स्पर्शना, (5) काल, (6) अंतर, (7) भाव और (8) अल्पबहुत्व। इन आठ अनुयोगद्वारों को आधार बनाकर प्रत्येक द्वार में जीव के तत्सम्बंधी पक्ष की चर्चा की गई है। आठ अनुयोगद्वारों के उल्लेख के पश्चात् ग्रंथ में,चौदह मार्गणास्थानों, चौदह जीवस्थानों और चौदह गुणस्थानों के नामों का निर्देश किया गया है। मार्गणा वह है, जिसके माध्यम से जीव अपनी अभिव्यक्ति करता है। जीव की शारीरिक, ऐन्द्रिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों की अभिव्यक्तियों के जो मार्ग हैं वे ही मार्गणा कहे जाते हैं। मार्गणाएं निम्न हैं- (1) गति-मार्गणा, (2) इन्द्रिय-मार्गणा, (3) काय-मार्गणा, (4) योग-मार्गणा, (5) वेद-मार्गणा, (6) कषाय-मार्गणा, (7) ज्ञान-मार्गणा, (8) संयम-मार्गणा, (9) दर्शन-मार्गणा, (10) लेश्या-मार्गणा, (11) भव्यत्व-मार्गणा, (12) सम्यक्त्व-मार्गणा, (13) संज्ञी-मार्गणा और (14) आहार-मार्गणा। इसी क्रम में आगे चौदह गुणस्थानों का जीवसमास के नाम से निर्देश किया गया है। वे चौदह गुणस्थान निम्न हैं (1) मिथ्यात्व गुणस्थान, (2) सास्वादन गुणस्थान, (3) मिश्र गुणस्थान, (4) अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान, (5) देश-विरत गुणस्थान, (6) प्रमत्तसंयम गुणस्थान, (44)