________________ णिक्खेव-णिरुत्तीहिं य छहिं अट्ठहिं अणुओगदारेहिं / गइआइमग्गणाहि य जीवसमासाऽणुगंतब्बा // 2 // इसमें बतलाया गया है कि नामादि निक्षेपों के द्वारा निरुक्ति के द्वारा निर्देश, स्वामित्व आदि छह और सत्, संख्या आदि आठ अनुयोग-द्वारों से तथा गति आदि चौदह मार्गणा-द्वारों से जीवसमास को जानना चाहिए। इसके पश्चात् उक्त सूचना के अनुसार ही सत्-संख्यादि आठों प्ररूपणाओं आदि का मार्गणास्थानों में वर्णन किया गया है। इस जीवसमास प्रकरण की गाथा -संख्या की स्वल्पता और जीवट्ठाण के आठों प्ररूपणाओं की सूत्र-संख्या की विशालता ही उसके निर्माण में एक-दूसरे की आधार-आधेयता को सिद्ध करती है। जीवसमास की गाथाओं और षट्खण्डागम के जीवस्थानखण्ड को आठों प्ररूपणाओं का वर्णन-क्रम विषय की दृष्टि से कितना समान है, यह पाठक दोनों का अध्ययन कर स्वयं ही अनुभव करें। प्रस्तुत पंचसंग्रह के जीवसमास-प्रकरण के अंत में उपसंहार करते हुए जो 182 अंक-संख्या वाली गाथा पाई जाती है, उससे भी हमारे उक्त कथन की पुष्टि होती है। वह गाथा इस प्रकार है णिक्खेवे एयढे णयप्पमाणे णिरुक्ति-अणिओगे। मग्गइ वीसं भेए सो जाणइ जीवसब्भावं / / अर्थात् जो पुरुष निक्षेप, एकार्थ, नय, प्रमाण, निरुक्ति और अनुयोगद्वारों से मार्गणा आदि बीस भेदों में जीव का अन्वेषण करता है, वह जीव के यथार्थ सद्भाव या स्वरूप को जानता है। पाठक स्वयं ही देखें कि पहली गाथा की बात को ही दूसरी गाथा के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। केवल एक अंतर दोनों में है। वह यह कि पहली गाथा उक्त प्रकरण के प्रारम्भ में दी है, जबकि दूसरी गाथा उस प्रकरण के अंत में। पहले प्रकरण में प्रतिज्ञा के अनुसार प्रतिपाद्य विषय का प्रतिपादन किया गया है, जबकि दूसरे प्रकरण में केवल एक निर्देश- अनुयोगद्वार से 14 मार्गणाओं में जीव की विंशतिविधा सत्प्ररूपणा की गई है और शेष संख्यादि प्ररूपणाओं को न कहकर उनको जानने की सूचना कर दी गई है। 2. पृथिवी आदि षट्कायिक जीवों के भेद प्रतिपादन करने वाली गाथाएं भी (38)