________________ मिलते हैं, किंतु वे मूलतः नवदीक्षित मुनि के आचार का ही विवेचन प्रस्तुत करते हैं। यद्यपि दिगम्बर परम्परा में ब्रह्मचर्य प्रतिमा और क्षुल्लक दीक्षा के निर्देश मिलते हैं और श्वेताम्बर परम्परा में भी गृहस्थों द्वारा ब्रह्मचर्यव्रत स्वीकार किया जाता है और तत्सम्बंधी प्रतिज्ञा के आलापक भी हैं, किंतु क्षुल्लक दीक्षा सम्बंधी कोई विधि-विधान मूल आगम साहित्य में नहीं है, मात्र तत्सम्बंधी आचार का उल्लेख है। श्वेताम्बर परम्परा में सामायिक चारित्र ग्रहण रूप जिस छोटी दीक्षा का और छेदोपस्थापनीय चारित्र ग्रहण रूप बड़ी दीक्षा के जो उल्लेख हैं, वे प्रस्तुत ग्रंथ में प्रव्रज्याविधि और उपस्थापनाविधि के नाम से विवेचित हैं। वर्धमानसूरि की यह विशेषता है कि वे ब्रह्मचर्य व्रत से संस्कारित या क्षुल्लक दीक्षा गृहीत व्यक्ति को गृहस्थों के व्रतारोपण को छोड़कर शेष पंद्रह संस्कारों को करवाने की अनुमति प्रदान करते हैं। यही नहीं यह भी माना गया है कि मुनि की अनुपस्थिति में क्षुल्लक भी गृहस्थ को व्रतारोपण करवा सकता है। उन्होंने क्षुल्लक का जो स्वरूप वर्णित किया है, वह भी वर्तमान में दिगम्बर परम्परा की क्षुल्लक दीक्षा से भिन्न ही हैं। क्योंकि दिगम्बर परम्परा में क्षुल्लक दीक्षा आजीवन के लिए होती है। साथ ही क्षुल्लक को गृहस्थ के संस्कार करवाने का अधिकार भी नहीं है। यद्यपि क्षुल्लक के जो कार्य वर्धमानसूरि ने बताए हैं, वे कार्य दिगम्बर परम्परा में भट्टारकों द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं। गृहस्थ के विधिविधानों की चर्चा करते हुए उन्होंने जैन ब्राह्मण और क्षुल्लक का बार-बार उल्लेख किया है, इससे ऐसा लगता है कि प्रस्तुत कृति के निर्माण में दिगम्बर परम्परा का भी प्रभाव रहा है। स्वयं उन्होंने अपने उपोद्घात में भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि मैंने श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित जीवन्त परम्परा को और उनके ग्रंथों को देखकर इस ग्रंथ की रचना की है। वर्धमानसूरि गृहस्थ सम्बंधी संस्कार हेतु जैन ब्राह्मण की बात करते हैं, किंतु श्वेताम्बर परम्परा में जैन ब्राह्मण कोई व्यवस्था नहीं है, ऐसा उस परम्परा के ग्रंथों से ज्ञात नहीं होता है। सम्भावना यही है श्वेताम्बर परम्परा शिथिल यतियों के द्वारा वैवाहिक जीवन स्वीकार करने पर जो मत्थेण, गौरजी महात्मा आदि की जो परम्परा प्रचलित हुई थी और जो गृहस्थों के कुलगुरु का कार्य भी करते थे, वर्धमानसूरि का जैन ब्राह्मण से आशय उन्हीं से होगा। लगभग 50 वर्ष पूर्व तक ये लोग यह कार्य सम्पन्न करवाते थे। इस कृति के तृतीय खण्ड में मुनि एवं गृहस्थ दोनों से सम्बंधित आठ संस्कारों 202