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________________ करने वाला यही एकमात्र अद्वितीय ग्रंथ हैं। वर्धमानसूरि की यह विशेषता है कि उन्होंने गर्भाधान संस्कार को हिन्दू परम्परा के सीमान्त संस्कार के पूर्व रूप में स्वीकार किया है और यह माना है कि कि गर्भ के स्पष्ट लक्षण प्रकट होने पर ही यह संस्कार किया जाना चाहिए। इस प्रकार उनके द्वारा प्रस्तुत गर्भाधान संस्कार वस्तुतः गर्भाधान संस्कार न होकर सीमान्त संस्कार का ही पूर्व रूप है। वर्धमानसरिने गृहस्थ सम्बंधी जिन षोडश संस्कारों का विधान किया है, उनमें से व्रतारोपण को छोड़कर शेष सभी संस्कार हिन्दू परम्परा के समरूप ही प्रस्तुत किए गए हैं, यद्यपि संस्कार सम्बंधी विधि-विधान में जैनत्व को प्रधानता दी गई है और तत्सम्बंधी मंत्र भी जैन परम्परा के अनुरूप ही प्रस्तुत किए गए हैं। वर्धमानसूरि द्वारा विरचित षोडश संस्कारों और हिन्दू परम्परा में प्रचलित षोडश संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर हम यह पाते हैं कि इस ग्रंथ में हिन्दू परम्परा के षोडश संस्कारों का मात्र जैनीकरण किया गया है। किंतु जहां हिन्दू परम्परा में विवाह संस्कार के पश्चात् वानप्रस्थ संस्कार का उल्लेख होता है, वहां वर्धमानसूरि ने विवाह संस्कार के पश्चात् व्रतारोपण संस्कार का उल्लेख किया है। व्रतारोपण संस्कार वानप्रस्थ संस्कार से भिन्न है, क्योंकि वह गृहस्थ जीवन में ही स्वीकार किया जाता है। पुनः वह ब्रह्मचर्य व्रतग्रहण और क्षुल्लक दीक्षा से भी भिन्न है, क्योंकि दोनों में मौलिक दृष्टि से यह भेद है कि ब्रह्मचर्य व्रतग्रहण तथा क्षुल्लक दीक्षा दोनों में ही स्त्री का त्याग अपेक्षित होता है, जबकि वानप्रस्थाश्रम स्त्री के साथ ही स्वीकार किया जाता है। यद्यपि इसकी क्षुल्लक दीक्षा से इस अर्थ में समानता है कि दोनों ही संन्यास की पूर्व अवस्था एवं गृह त्याग रूप हैं। वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर के दूसरे खण्ड में मुनि जीवन से सम्बंधित षोडश संस्कारों का उल्लेख है। इन संस्कारों में जहां एक और मुनि जीवन की साधना एवं शास्त्राध्ययन से सम्बंधित विधि-विधान हैं, वहीं दूसरी ओर साधु-साध्वी के संघ संचालन सम्बंधी विविध पद एवं उन पदों पर स्थापन की विधि दी गई है। मुनि जीवन से सम्बंधित ये विधि-विधान वस्तुतः जैन संघ की अपनी व्यवस्था है। अतः अन्य परम्पराओं में तत्सम्बंधी विधि-विधानों का प्रायः अभाव ही देखा जाता है। वर्धमानसूरि के आचारदिनकर नामक ग्रंथ में इस सम्बंध में यह विशेषता है कि वह मुनि की प्रव्रज्या विधि के पूर्व, ब्रह्मचर्य व्रत संस्कार और क्षुल्लक दीक्षा विधि को प्रस्तुत करता है। श्वेताम्बर परम्परा के उनसे पूर्ववर्ती किसी भी ग्रंथ में इस प्रकार विधि-विधान का कहीं भी उल्लेख नहीं है, यद्यपि प्राचीन आगम ग्रंथों जैसे दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि में क्षुल्लकाचार नामक अध्ययन (201)
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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