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________________ थी। बुढ़िया ने सोचा क्या हुआ, गर प्रकाश बाहर है तो सूई को वहीं खोजा जाए। वह उस प्रकाश में सूई खोजती रही, खोजती रही, किंतु सूई वहां कब मिलने वाली थी, क्योंकि वह वहां थी ही नहीं। प्रातः होने वाली थी कि कोई यात्री उधर से निकला। उसने वृद्धा से उसकी परेशानी का कारण पूछा। उसने पूछा अम्मा, सूई गिरी कहां थी? वृद्धा ने उत्तर दिया- बेटा, सूई तो झोपड़ी में गिरी थी, किंतु वहां उजाला नहीं था, अतः वहां खोजना सम्भव नहीं था। उजाला बाहर था, इसलिए मैं यहां खोज रही थी। यात्री ने उत्तर दिया- यह सम्भव नहीं है अम्मा! जो चीज जहां नहीं है, वहां खोजने पर मिल जाए। सूर्य का प्रकाश होने को है, उस प्रकाश में सूई वहीं खोजें जहां गिरी है। आज मानव समाज की स्थिति भी उसी वृद्धा के समान है। हम शांति की खोज वहां कर रहे हैं, जहां वह होती ही नहीं। शांति आत्मा में है, अंदर है। विज्ञान के सहारे आज शांति की खोज के प्रयत्न के उस बुढ़िया के प्रयत्नों के समान निरर्थक ही होंगे। विज्ञान, साधन दे सकता है, शक्ति दे सकता है, किंतु लक्ष्य का निर्धारण तो हमें ही करना होगा। . आज विज्ञान के कारण मानव के पूर्व स्थापित जीवन मूल्य समाप्त हो गए हैं। आज श्रद्धा का स्थान तर्क ने ले लिया है। आज मनुष्य पारलौकिक उपलब्धियों के स्थान पर इहलौकिक उपलब्धियों को चाहता है। आज के तर्क प्रधान मनुष्य को सुख और शांति के नाम पर बहलाया नहीं जा सकता, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज हम अध्यात्म के अभाव में नए जीवन मूल्यों का सृजन नहीं कर पा रहे हैं। आज विज्ञान का युग है। आज उस धर्म को, जो पारलौकिक जीवन की सुख-सुविधाओं के नाम पर मानवीय भावनाओं का शोषण कर रहा है, जानना होगा। आज तथाकथित वे धर्म परम्पराएं जो मनुष्य को भविष्य के सुनहरे सपने दिखाकर फुसलाया करती थीं, अब तर्क की पैनी छेनी के आगे अपने को नहीं बचा सकतीं। अब स्वर्ग में जाने के लिए नहीं जीना है, अपितु स्वर्ग को धरती पर लाने के लिए जीना होगा। विज्ञान ने वह शक्ति दे दी है, जिससे स्वर्ग को धरती पर उतारा जा सकता है। अब यदि हम इस शक्ति का उपयोग धरती पर स्वर्ग उतारने के स्थान पर, धरती को नरक बनाने में करेंगे, तो इसकी जवाबदेही हम पर ही होगी। आज वैज्ञानिक शक्तियों का उपयोग इस दृष्टि से करना है कि वे मानव-कल्याण में सहभागी बनकर इस धरती को ही स्वर्ग बना सकें। विनोबा जी ने सत्य ही कहा है- आज विज्ञान का तो विकास हुआ, किंतु वैज्ञानिक उत्पन्न ही नहीं हुआ, क्योंकि वैज्ञानिक वह है जो निरपेक्ष होता है। आज का वैज्ञानिक राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों के इशारे पर चलने
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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