________________ समझता है, जानता है, परखता है, किंतु अपने प्रति तन्द्राग्रस्त है। उसे स्वयं यह बोध नहीं है कि मैं कौन हूं? मेरा कर्त्तव्य क्या है? लक्ष्य क्या है? वह भटक रहा है, मात्र भटक रहा है। आज से 2500 वर्ष पूर्व महावीर ने मनुष्य की उस पीड़ा को समझा था। उन्होंने कहा था कि कितने ही लोग ऐसे हैं, जो नहीं जानते कि मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? मेरा गन्तव्य क्या है? यह केवल महावीर ने कहा हो ऐसी बात नहीं है। बुद्ध ने भी कहा था- ‘अदानं गवेस्सेथ' अपने को खोजो। औपनिषदिक ऋषियों ने कहा - 'आत्मानं विद्धि', अपने आपको जानो यही जीवन परिशोध का मूलमंत्र है। आज हमें पुनः इन्हीं प्रश्नों के उत्तर को खोजना है। आज का विज्ञान आपको पदार्थ जगत् के संदर्भ में सूक्ष्मतम सूचनाएं दे सकता है, किंतु वे सूचनाएं हमारे लिए ठीक उसी तरह अर्थहीन हैं, जिस प्रकार जब तक आंख न खुली हों, प्रकाश का कोई मूल्य नहीं। विज्ञान प्रकाश है, किंतु अध्यात्म की आंख के बिना उसकी कोई सार्थकता नहीं है। आचार्य भद्रबाहु ने कहा था- अंधे व्यक्ति के सामने करोड़ों दीपक जलाने से क्या लाभ? जिसकी आंख खुली हो उसके लिए एक ही दीपक पर्याप्त है। आज के मनुष्य की भी यही स्थिति है। वह विज्ञान और तकनीक के सहारे बाह्यजगत् में चकाचौंध विद्युत फैला रहा है, किंतु अपने अन्तर्चक्षु का उन्मीलन नहीं कर पा रहा है। प्रकाश की चकाचौंध में हम अपने को ही नहीं देख पा रहे हैं। यह सत्य है कि प्रकाश आवश्यक है, किंतु आंखें खोले बिना उसका कोई मूल्य नहीं है। विज्ञान ने मनुष्य को शक्ति दी हैं आज वह ध्वनि से भी अधिक तीव्र गति से यात्रा कर सकता है, किंतु स्मरण रहे विज्ञान जीवन के लक्ष्य का निर्धारण नहीं कर सकता। लक्ष्य का निर्धारण तो अध्यात्म ही कर सकता है। विज्ञान साधन देता है, लेकिन उनका उपयोग किस दिशा में करना होगा, यह बतलाना अध्यात्म का कार्य है। पूज्य विनोबा जी के शब्दों में- 'विज्ञान' में दोहरी शक्ति होती है, एक विनाश-शक्ति और दूसरी विकास-शक्ति। वह सेवा भी कर सकता है और संहार भी। अग्नि नारायण की खोज हुई तो उससे रसोई भी बनाई जा सकती है और उससे आग भी लगाई जा सकती है। अग्नि का प्रयोग घर फूंकने में करना या चूल्हा जलाने में यह अक्ल विज्ञान में नहीं है। अक्ल तो आत्मज्ञान में है। आगे वे कहते हैं- आत्मज्ञान है- आंख और विज्ञान है- पांव। अगर मानव को आत्मज्ञान नहीं है तो वह अंधा है। कहां चला जाएगा कुछ पता नहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो अध्यात्म देखता तो है, लेकिन चल नहीं सकता। उसमें लक्ष्य बोध तो है, किंतु गति की शक्ति नहीं। विज्ञान में शक्ति तो है किंतु गति की शक्ति नहीं। विज्ञान में शक्ति तो है किंतु आंख नहीं है, लक्ष्य का बोध नहीं है। जिस प्रकार अंधे और लंगड़े दोनों ही परस्पर सहयोग के अभाव में दावानल में जल (182)