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________________ द्वारा प्रतिस्थापित आध्यात्मिक मूल्यों और आधुनिक विज्ञान की उपलब्धियों के समन्वय की। निश्चय ही 'विज्ञान और अध्यात्म' की चर्चा आज प्रासंगिक है। सामान्यतया आज विज्ञान और अध्यात्म को परस्पर विरोधी अवधारणाओं के रूप में देखा जाता है। जहां अध्यात्म को धर्मवाद और पारलौकिकता के साथ जोड़ा जाता है, वहीं विज्ञान को भौतिकता और इहलौकिकता के साथ जोड़ा जाता है। आज दोनों में विरोध माना जाता है, लेकिन यह अवधारणा ही भ्रांत है। प्राचीन युग में तो विज्ञान और अध्यात्म ये शब्द भी परस्पर भिन्न अर्थ के बोधक नहीं थे। महावीर ने आचारांगसूत्र में कहा है कि जो आत्मा है वही विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वही आत्मा है। यहां आत्मज्ञान और विज्ञान दोनों एक ही हैं। वस्तुतः विज्ञान शब्द विज्ञान से बना है। 'वि' उपसर्ग विशिष्टता का द्योतक है अर्थात् विशिष्ट ज्ञान ही विज्ञान है। आज जो विज्ञान शब्द केवल पदार्थ-ज्ञान के रूप में रूढ़ हो गया है, वह मूलतः विशिष्ट ज्ञान या आत्मज्ञान ही था। आत्मज्ञान ही विज्ञान है। पुनः अध्यात्म शब्द भी अधि-आत्म से बना है। 'अधि' उपसर्ग भी विशिष्टता का ही सूचक है, जो आत्मा की विशिष्टता है, वही अध्यात्म है। चूंकि आत्मा ज्ञान स्वरूप ही है, अतः ज्ञान की विशिष्टता ही अध्यात्म है और वही विज्ञान है। फिर भी आज विज्ञान पदार्थ-ज्ञान के अर्थ में और अध्यात्म आत्मज्ञान के अर्थ में रूढ़ हो गया है। मेरी दृष्टि में विज्ञान साधकों का ज्ञान है तो अध्यात्म साध्य का ज्ञान। प्रस्तुत निबंध में इन्हीं रूढ़ अर्थों में विज्ञान और अध्यात्म शब्द का प्रयोग किया जा रहा है। एक हमें बाह्य-जगत् में जोड़ता है, तो दूसरा हमें आत्म-जगत् से। दोनों ही 'योग' हैं। एक * साधन-योग है तो दूसरा साध्य-योग। एक हमें जीवन-शैली (Life style) देता है, तो दूसरा हमें जीवन-साध्य (Goal of life) देता है। आज हमारा दुर्भाग्य यही है कि जो एक-दूसरे के पूरक हैं उन्हें हमने एक-दूसरे का विरोधी मान लिया है। आज आवश्यकता इस बात की है कि इनकी परस्पर पूरक शक्ति या अभिन्नता को समझा जाए। . आज हम विज्ञान को पदार्थ विज्ञान मानते हैं। यद्यपि आज हमने 'पर' या अनात्म' के संदर्भ में इतना अधिक ज्ञान अर्जित कर लिया है कि 'स्व' या आत्म' को विस्मृत कर बैठे हैं। हमने परमाणु के आवरण को तोड़कर उसके जर्रे-जर्रे को जानने का प्रयास किया, किंतु दुर्भाग्य यही है कि अपनी आत्मा के आचरण को भेदकर अपने आपको नहीं जान सके। हम परिधि को व्यापकता देने में केंद्र को ही भुला बैठे। मनुष्य की यह परकेन्द्रितता ही उसे अपने आपसे बहुत दूर ले गई है। यही आज के जीवन की त्रासदी है। वह दुनिया को
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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