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________________ सूरि के अनुसार जो कोई सिद्ध हैं वे इस आत्म-अनात्म के विवेक या भेद विज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जो बंधन में हैं, वे इसके अभाव कारण ही हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में इस भेद विज्ञान का अत्यंत गहन विवेचन किया है, किंतु विस्तारपूर्वक यह समग्र विवेचना यहां सम्भव नहीं है। जैन परम्परा में साधना का तीसरा चरण सम्यक् चारित्र है। इसके दो रूप माने गए हैं - 1. व्यवहार चारित्र और 2. निश्चय चारित्र। आचरण का बाह्य पक्ष या आचरण के विधि-विधान व्यवहार चारित्र कहे जाते हैं. जबकि आचरण की अन्तरात्मा निश्चय चारित्र कही जाती है। . .. निश्चय दृष्टि (Real view point) से चारित्र का सच्चा अर्थ समभाव या समत्व की उपलब्धि है। मानसिक चैतिसिक जीवन में समत्व की उपलब्धि- यही चारित्र का पारमार्थिक या नैश्चयिक पक्ष है। वस्तुतः चारित्र का यह पक्ष आत्म-रमण की स्थिति है। नैश्चयिक चारित्र का प्रादुर्भाव केवल प्रमत्त अवस्था में ही होता है। अप्रमत्त चेतना की अवस्था में होने वाली सभी कार्य शुद्ध ही माने गए हैं। चेतना में जब राग, द्वेष कषाय और वासनाओं की अग्नि पूरी तरह शांत हो जाती है तभी सच्चे आध्यात्मिक एवं धार्मिक जीवन का उद्भव होता है। साधना जब जीवन की प्रत्येक क्रिया के सम्पादन में आत्म जागृत होता है, उसका आचरण बाह्य आवेगों और वासनाओं से चलित नहीं होता है तभी वह सच्चे अर्थों में नैश्चयिक चारित्र का पालनकर्ता माना जाता है। यही नैश्चयिक चारित्र जैन अध्यात्म की आधारशिला है और मुक्ति का अंतिमकारक है। जैन पर्वो की आध्यात्मिक प्रकृति न केवल जैन साधना-पद्धति की प्रकृति ही अध्यात्मवादी है, अपितु जैन पर्व भी मूलतः अध्यात्मवादी ही है। जैन पर्व आमोद-प्रमोद के लिए न होकर आत्मसाधना और तप साधना के लिए होते हैं। उनमें मुख्यतः तप, त्याग, व्रत एवं उपवासों की प्रधानता होती है। जैनों के प्रसिद्ध पर्यों में श्वेताम्बर परम्परा में पयूषण पर्व और दिगम्बर परम्परा में दशलक्षण पर्व है जो भाद्रपद में मनाए जाते हैं। इन दिनों में जिन प्रतिमाओं की पूजा, उपवास आदि व्रत तथा धर्म ग्रंथों का स्वाध्याय यही साधकों की दिनचर्या के प्रमुख अंग होते हैं। इन पर्यों के दिनों में जहां दिगम्बर परम्परा में प्रतिदिन क्षमा, विनम्रता, सरलता, पवित्रता, सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य आदि दस धर्मों (सद्गुणों) की विशिष्ट साधना की जाती है, वहां श्वेताम्बर परम्परा में इन दिनों में प्रतिक्रमण के रूप में आत्म पर्यावलोचन किया जाता है। श्वेताम्बर परम्परा का अंतिम दिन संवत्सरी पर्व के नाम से मनाया जाता है और (176)
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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