________________ आत्मा का साध्य आत्मा ही है। जैनधर्म का साधना मार्ग भी आत्मा से भिन्न नहीं है। हमारी ही चेतना के ज्ञान, भाव और संकल्प के पक्ष सम्यक् दिशा में नियोजित होकर साधनामार्ग बन जाते हैं। जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र को, जो मोक्ष मार्ग कहा गया है, उसका मूल हार्द इतना ही है कि चेतना के ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक पक्ष क्रमशः सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र के रूप में साधना मार्ग बन जाते हैं। इस प्रकार साधना मार्ग भी आत्मा ही है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि मोक्षकामी को आत्मा को जानना चाहिए, आत्मा पर ही श्रद्धा करना चाहिए और आत्मा को ही अनुभूति (अनुचरितव्यश्च) करना चाहिए। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, प्रत्याख्यान (त्याग), संवर (संयम) और योग में है। जिन्हें व्यवहारनय से ज्ञान, दर्शन और चारित्र कहा गया है कि वे निश्चयनय से तो आत्मा ही हैं। त्रिविधि साधनामार्ग और आत्मा . सम्भवतः यह प्रश्न हो सकता है कि जैनधर्म में त्रिविध साधना मार्ग का ही विधान क्यों किया गया है? वस्तुतः त्रिविध साधना मार्ग के विधान में जैनाचार्यों की एक गहन मनोवैज्ञानिक सूझ रही है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय चेतना के तीन पहलू माने गए हैं- 1. ज्ञान, 2. भाव और 3. संकल्प। चेतना के इन तीनों पक्षों के सम्यक विकास के लिए ही त्रिविध साधना मार्ग का विधान किया गया है। चेतना के भावात्मक पक्ष को सही दिशा में नियोजित करने के लिए सम्यक् दर्शन, ज्ञानात्मक पक्ष के सही दिशा में नियोजन के लिए ज्ञान और संकल्पात्मक पक्ष को सही दिशा में नियोजित करने के लिए सम्यक् चारित्र का प्रावधान किया गया है। पाश्चात्य परम्परा में भी तीन आदेश उपलब्ध होते हैं- 1. स्वयं को जानो (Know Thyself), 2. स्वयं को स्वीकार करो (Accept Thyself) और स्वयं ही बन जाओ (Be Thyself) / पाश्चात्य चिंतन के ये तीन आदेश ज्ञान, दर्शन और चारित्र के ही समकक्ष हैं। आत्मज्ञान में ज्ञान का तत्त्व, आत्मस्वीकृति में श्रद्धा का तत्त्व और आत्मनिर्माण में चारित्र का तत्त्व उपस्थित है। ___ . जैन-दर्शन में सम्यग्दर्शन आत्मश्रद्धान है, सम्यग्ज्ञान आत्म-अनात्म का विवेक है। जैनों की पारिभाषिक शब्दावली में इसे भेद विज्ञान कहा जाता है। आचार्य अमृतचंद्र