________________ सर्वार्थसिद्धिमान्यपाठ परिवर्तन का उत्तरदायी कौन? - इसी से सम्बद्ध ही एक प्रश्न यह उठता है कि इस पाठ परिवर्तन का उत्तरदायी कौन है? सामान्यतया श्वेताम्बर विद्वानों की यह मान्यता रही है कि यह पाठ परिवर्तन दिगम्बर आचार्यों के द्वारा किया गया, किंतु पूर्व चर्चा में मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि भाष्य मान्य पाठ का संशोधन करके जो सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ निर्धारित हुआ है, उस परिवर्तन का दायित्व दिगम्बर आचार्यों पर नहीं जाता है। यदि पूज्यपाद देवनन्दी ने ही इस पाठ का संशोधन किया होता तो वे 'एकादश जिने' आदि उन सूत्रों को निकाल देते या संशोधित कर देते जो दिगम्बर परम्परा के पक्ष में नहीं जाते हैं। इस सम्बंध में मेरा निष्कर्ष यह है कि सर्वाथसिद्धिमान्य पाठ किसी यापनीय आचार्य द्वारा संशोधित है। पूज्यपाद देवनन्दी को जिस रूप में उपलब्ध हुआ है, उन्होंने उसी रूप में उसकी टीका लिखी है। पुनः यह संशोधित पाठ भी स्वयं तत्त्वार्थभाष्य पर आधारित है। इसमें अनेक भाष्य के वाक्य या वाक्यांश सूत्र के रूप में ग्रहीत कर लिए गए हैं। जहां तक भाष्य मान्य पाठ का प्रश्न है, वहीं तत्त्वार्थसूत्र का मूल पाठ रहा है और श्वेताम्बर आचार्यों ने भी कोई पाठ संशोधन नहीं किया है- सिद्धसेन गणि को वह पाठ जिस रूप में उपलब्ध हुआ है, उन्होंने उसे वैसा ही रखा है, यदि वे उसे संशोधित करते या सवार्थसिद्धि के पाठ के आधार पर उसे अपनी परम्परानुसार नया रूप देते, तो फिर मूल एवं भाष्य में जिन मूल भेदों की चर्चा . वे करते हैं, वह सम्भव ही नहीं होती, अतः पाठ संशोधन न तो दिगम्बरों ने किया है और न श्वेताम्बरों ने। उसका उत्तरदायित्व तो यापनीय आंचार्यों पर जाता है। तत्त्वार्थभाष्य की स्वोपज्ञता तत्त्वार्थाधिगम भाष्य की स्वोपज्ञता भी एक विवाद का विषय रही है। इस संदर्भ में समस्त विवेचना से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि भाष्य की स्वोपज्ञता निर्विवाद है। भाष्य तत्त्वार्थसूत्र की अन्य टीकाओं की अपेक्षा अविकसित है, उसमें गुण स्थान, स्याद्वाद, सप्तभंगी जैसे विषयों का स्पष्ट अभाव है। पं. नाथूरामजी प्रेमी आदि कुछ दिगम्बर विद्वानों ने भी उसकी स्वोपज्ञता को स्वीकार किया है, अतः भाष्य की स्वोपज्ञता निर्विवाद है। भाष्य में जो वस्त्र-पात्र सम्बंधी उल्लेख है, वे वर्तमान श्वेताम्बर परम्परा के पोषक न होकर उस स्थिति के सूचक है, जो ई.सन् की दूसरी-तीसरी शती में उत्तरभारत के निग्रंथ संघ की थी और जिनका अंकन मथुरा की मुनि प्रतिमाओं में भी हुआ है। मथुरा के इस काल के अंकनों में मुनि नग्न है, किंतु उसके हाथ में कम्बल और मुखवस्त्रिका है। (160)