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________________ तथा अकल्पवासी अर्थात् गैवेयक एवं अनुत्तरविमानवासी देव पुनः मनुष्य भव ग्रहण करके मुक्ति प्राप्त करते हैं, तो वे एक समय में अधिकतम दस-दस व्यक्ति ही सिद्ध हो सकते हैं। कल्पवासी देवों से मनुष्य जन्म ग्रहण कर मुक्त होने वाले जीवों की अधिकतम संख्या एक सौ आठ हो सकती है। पृथ्वीकाय, अप्कायिक और पंकप्रभा आदि नरक से मनुष्य भव ग्रहण करके मुक्ति प्राप्त करने वाले एक समय में चार-चार व्यक्ति हो सकते हैं। ५४वें द्वार में सिद्धों के आत्म-प्रदेशों के संस्थान (विस्तार क्षेत्र) की चर्चा की गई है। इस चर्चा में उत्तानक अर्धअवनत, पार्श्वस्थित, स्थित, उपविष्ट आदि संस्थानों की चर्चा भी की गई है। इसके पश्चात् ५५वे द्वार में सिद्धों की अवस्थिति की चर्चा है। वस्तुतः, इस प्रसंग में सिद्ध शिला के ऊपर और अलोक से नीचे कितने मध्य भाग में सिद्ध अवस्थित रहे हुए हैं यह बताया गया है। पुनः जैसा कि हमने पूर्व से सूचित किया है 56-57 और ५८वें द्वार में सिद्धों की उत्कृष्ट-मध्यम और जघन्य अवगाहना की चर्चा की गई है। ५९वें द्वार में लोक की शाश्वत जिन प्रतिमाओं का उल्लेख है। ६०वें द्वार में जिन कल्प का पालन करने वाले मुनियों के और ६१वें द्वार में स्थविर कल्प का पालन करने वाले मुनियों के उपकरणों का उल्लेख है। इसी प्रसंग में स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध के स्वरूप की चर्चा भी की गई है। ६२वें द्वार में साध्वियों के उपकरणों की चर्चा है, जबकि ६३वां द्वार जिन कल्पिकों की संख्या के सम्बंध में विवेचन करता है। ६४वें द्वार में आचार्य के 36 गुणों का निर्देश किया गया है, इसी प्रसंग में आचार्य की 8 सम्पदाओं की भी विस्तार से चर्चा की गई है। ज्ञातव्य है कि यहां आचार्य के इन छत्तीस गुणों की चर्चा अनेक अपेक्षाओं से उपलब्ध होती है। ६५वें द्वार में जहां विनय के बावन भेदों की चर्चा है, वहीं ६६वें द्वार में चरणसत्तरी और ६७वें द्वार में करणसत्तरी का विवेचन है। पंच महाव्रत, दस श्रमण धर्म, सतरह प्रकार का संयम, दस प्रकार की वैयावृत्य, नौ ब्रह्मचर्य, गुप्तियां, तीन रत्नत्रय, बारह तप और क्रोध आदि चार कषायों का निग्रह ये चरणसत्तरी के सत्तर भेद हैं। साथ ही प्रस्तुत कृति में यह भी बताया गया है कि अन्य-अन्य आचार्यों की कृतियों में चरणसत्तरी के इन सत्तर भेदों का वर्गीकरण किस-किस प्रकार से किया गया है। करणसत्तरी के अंतर्गत सोलह उद्गम दोषों, सोलह उत्पादन दोषों, दस एषणा दोषों, पांच ग्रासैषणा दोषों, पांच समितियों, बारह भावनाओं, पांच इंद्रियों का निरोध, तीन गुप्ति आदि की चर्चा की गई है। 144
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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