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________________ (अ) जिनमुद्रा, (ब) योगमुद्रा, (स) मुक्ताशुक्ति मुद्रा 10. मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों का संवरण करके परमात्मा की शरण ग्रहण करना प्रणिधान त्रिक है। _ 'चैत्यवंदनद्वार' में उपरोक्त दशत्रिकों के साथ-साथ स्तुति एवं वंदन विधि का तथा द्वादश अधिकारों का विवेचन है। अंत में चैत्यवंदन कब और कितनी बार करना आदि की चर्चा के साथ चैत्यवंदन के जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट भेदों का विवेचन करते हुए यह चैत्यवंदन द्वार समाप्त होता है। 'चैत्यवंदन' नामक प्रथम द्वार के पश्चात् प्रवचनसारोद्धार' का दूसरा द्वार गुरुवंदन के विधि-विधान एवं दोषों से सम्बंधित है। प्रस्तुत कृति में गुरुवंदन के 192 स्थान वर्णित किए गए हैं - मुखवस्त्रिका, काय (शरीर) और आवश्यक-क्रिया, इन तीनों में प्रत्येक के पच्चीस-पच्चीस स्थान बताए गए हैं। इनके अतिरिक्त स्थान सम्बंधी छः, गुण सम्बंधी छः, वचन सम्बंधी छः, अधिकारी को वंदन न करने सम्बंधी पांच, अनधिकारी को वंदन करने सम्बंधी पांच स्थान और प्रतिशेध सम्बंधी पांच स्थान बताए हैं। इसी क्रम में अवग्रह सम्बंधी एक, अभिधान सम्बंधी पांच, उदाहरण सम्बंधी पांच, आशातना सम्बंधी तेतीस, वंदनकोष सम्बंधी बत्तीस एवं कारण सम्बंधी आठ- ऐसे कुल 192 स्थानों का उल्लेख है। इस चर्चा से मुखवस्त्रिका के द्वारा काय अर्थात् शरीर के किन-किन भागों का कैसे प्रमार्जन करना चाहिए इसका विस्तृत एवं रोचक विवरण है। इसी क्रम में गुरुवंदन करते समय खमासना के पाठ का किस प्रकार से उच्चारण करना तथा उस समय कैसी क्रिया करनी चाहिए, इसका भी इस द्वार में निर्देश है। वंदन के अनधिकारी के रूप में (1) पार्श्वस्थ, (2) अवसन्न, (3) कुशील, (4) संसक्त और (5) यथाच्छंद- ऐसे पांच प्रकार के श्रमणों का न केवल उल्लेख किया गया है, अपितु उनके स्वरूप का भी विस्तृत विवरण दिया गया है। इसी क्रम में शीतलक, क्षुल्लक, श्रीकृष्ण शैल और पालक के दृष्टांत भी दिए गए हैं। अंत में तैंतीस आशातनाओं और वंदन सम्बंधी बत्तीस दोषों एवं वंदना के आठ कारणों का विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है। इस प्रकार प्रथम एवं द्वितीय द्वार लगभग 100 गाथाओं में सम्पूर्ण होते हैं। 'प्रवचनसारोद्धार' के तीसरे द्वार में दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की विधि तथा इनके अंतर्गत किए जाने वाले कायोत्सर्ग एवं क्षामणकों (खमासना) की विधि का विवेचन किया गया है। इसमें यह भी बताया गया है
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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