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________________ उत्तरार्ध से १३वीं शताब्दि के पूर्वार्ध तक सिद्ध होता है। ईस्वी सन् की दृष्टि से तो उनका सत्ताकाल ईसा की १२वीं शताब्दि सुनिश्चित है। प्रवचनसारोद्धार के टीकाकार सिद्धसेनसूरि ने इसकी टीका की रचना विक्रम संवत् 1248 मतान्तर से विक्रम संवत् 1278 में की थी। टीका प्रशस्ति से इस टीका के रचनाकाल का शब्दों के माध्यम से करिसागररविसंख्ये' ऐसा निर्देश किया गया है। यहां यह मतभेद इसलिए है कि सागर शब्द से कुछ लोग चार और कुछ लोग सात की संख्या का ग्रहण करते हैं। सागर से चार संख्या का ग्रहण करने पर टीका का रचनाकाल वि.सं. 1248 और सात संख्या ग्रहण करने पर टीका का रचनाकाल वि.सं. 1278 निर्धारित होता है। इनमें से चाहे कोई संवत् निश्चित हो, किंतु इतना निश्चित है कि विक्रम की तेरहवीं शती के उत्तरार्ध में यह टीका ग्रंथ निर्मित हो चुका था। मेरी दृष्टि में यदि प्रवचनसारोद्धार बृहद्गच्छीय नेमिचंद्रसूरि (द्वितीय) के जीवन के उत्तरार्ध की और अनन्तनाहचरियं के बाद की रचना है, तो वह विक्रम संवत् 1216 के पश्चात् लगभग वि.सं. 1225 के आसपास कभी लिखा गया होगा, क्योंकि अनन्तनाहचरियं को समाप्त करके इसे लिखने में 10-15 वर्ष अवश्य लगे होंगे। पुनः मूलग्रंथ और उसकी टीका के रचनाकाल के मध्य भी कम से कम 15-20 वर्ष का अंतर तो अवश्य ही मानना होगा। मूलग्रंथ और उसकी टीका उसी स्थिति में समकालिक हो सकते हैं, जबकि टीका या तो स्वोपज्ञ हो या अपने शिष्य या गुरुभ्राता के द्वारा लिखी गई हो। . प्रस्तुत कृति के टीकाकार सिद्धसेनसूरि नेमिचंद्रसूरि की बृहद्गच्छीय देवसूरि की परम्परा से भिन्न चंद्रगच्छीय अभयदेवसूरि की शिष्य परम्परा के थे। टीकाकार सिद्धसेनसूरि की गुरु परम्परा इस प्रकार है चंद्रगच्छीय अभयदेवसूरि धनेश्वरसूरि (मुञ्जनृप के समकालीन) अजितसिंहसूरि वर्धमानसूरि (133)
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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