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________________ की बात कहता है, उसी प्रकार जैन दर्शन भी आत्मशुद्धि के लिए ग्रंथि-भेद की बात कहता है। ग्रंथि, ग्रंथि-भेद और निग्रंथ शब्दों के प्रयोग स्वयं आचारांग की मनोवैज्ञानिक दृष्टि के परिचायक हैं। वस्तुतः, ग्रंथियों से मुक्ति ही साधना का लक्ष्य है- गंथेहि विवत्तेहिं आउकालस्सपारए- 1 / 8 / 8 / 11 / जो ग्रंथियों से रहित है वही निग्रंथ है। निग्रंथ होने का अर्थ है, राग-द्वेष या आसक्ति रूपी गांठ का खुल जाना। जीवन में अंदर और बाहर से एकरूप हो जाना, मुखौटों की जिंदगी से दूर हो जाना, क्योंकि ग्रंथि का निर्माण होता है रागभाव से, आसक्ति से, मायाचार या मुखौटों की जिंदगी से। इस प्रकार, आचारांग एक मनोवैज्ञानिक सत्य को प्रस्तुत करता है। आचारांग के अनुसार बंधन और मुक्ति के तत्त्व बाहरी नहीं, आंतरिक हैं। वह स्पष्ट रूप से कहता है कि - ‘बंधप्पमोक्खो तुज्झ अज्झत्थेव'१।५।२ / बंधन और मोक्ष हमारे अध्यवसायों किंवा मनोवृत्तियों पर निर्भर हैं। मानसिक बंधन ही वास्तविक बंधन हैं। वे गांठें जिन्होंने हमें बांध रखा है, वे हमारे मन की ही गांठे हैं। वह स्पष्ट उद्घोषणा करता है कि- 'कामेसु गिद्धा निचयंकरेंति'- 1 / 3 / 2 / कामभोगों के प्रति आसक्ति से ही बंधन की सृष्टि होती है। वह गांठ जो हमें बांधती है, आसक्ति की गांठ है, ममत्व की गांठ है, अज्ञान की गांठ है। इस आसक्ति से प्रत्युत्पन्न हिंसा व्यक्ति की और संसार की सारी पीड़ाओं का मूल स्रोत है। यही जीवन में नरक की सृष्टि करती है, जीवन को नारकीय बनाती है। एस.खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरएं१।१।२। आचारांग के अनुसार, विषय भोग के प्रति जो आतुरता है, वही समस्त पीड़ाओं की जननी है (आतुरा परितावेंति- 1 / 2) यहां हमें स्पष्ट रूप से विश्व की समस्त पीड़ाओं का एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्राप्त होता है। सूत्रकार स्पष्ट रूप से कहता है कि - ‘आसं च छंदं च विगिंच धीरे। तुमं चे तं सल्लमाहटुं'- 1 / 2 / 4 / हे धीर पुरुष! विषय भोगों की आकांक्षा और तत्सम्बंधी संकल्प-विकल्पों का परित्याग करो। तुम स्वयं इस काटे को अपने अन्तःकरण में रखकर दुःखी हो रहे हो। इस प्रकार, आचारांग बंधन, पीड़ा या दुःख के प्रति एक आत्मनिष्ठ एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। वह कहता है- जे आसवा ते परिस्सवा जे परिस्सवा ते आसवा (1 / 4 / 2) अर्थात् बाहर में जो बंधन के निमित्त हैं वे भी कभी मुक्ति के निमित्त बन जाते हैं। इसका आशय यही है कि बंधन और मुक्ति का सारा खेल साधक के अंतरंग भावों पर आधारित है। यदि इसी प्रश्न पर हम आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार करें, तो यह पाते हैं कि आधुनिक मनोविकृतियों के कारणों का विश्लेषण करते हुए स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि आकांक्षाओं का उच्चस्तर ही मन में कुण्ठाओं को उत्पन्न करता है और उन कुण्ठाओं के कारण मनोग्रंथियों
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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